Posted on 27-Apr-2015 05:44 PM
हनुमान जी को सीता का पता लगाने की जिम्मेदारी दी गई थी। अनेक बाधाओं को पार करते हुए हनुमान जी सूक्ष्म वेश धरकर रात में चुपचाप राक्षसों की नगरी लंका में प्रवेश करते हैं। वहाँ उन्हें तरह-तरह के ऐसे विचित्र और वीभत्स दृश्य दिखाई पड़ते हैं, जिनके बारे में तुलसीदास जी लिखते हैं कि ‘कहि जात सो नाहि।’ तो जहाँ ऐसे-ऐसे कर्म हो रहे हों कि जिन्हें तुलसीदास बताने तक में शर्म महसूस कर रहे हों, वहाँ यदि हनुमान जी को -राम-राम’ की ध्वनि सुनाई पड़ जाए, तो यह चील के घोसलें में मुर्गी के बच्चे के मिल जाने जैसी ही अविश्वसनीय बात है कि नहीं? ‘राम-राम’ की ध्वनि सुनकर हनुमान जी को लगा की भला राक्षसों की इस नगरी में ऐसा सज्जन पुरूष कहांँ से आ गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह राक्षसों की कोई माया ही हो। फिर जब घूमते-घूमते उन्हें एक आँगन में तुलसी का पौधा दिखाई दे गया, तब वे थोड़े सतर्क हो गए। उन्होंने तुलसी के पौधे और राम-राम के उच्चारण में एक संबंध बैठते हुए दिखाई दिया। उन्हें लगा कि कोई न कोई तो सज्जन व्यक्ति यहाँ जरूर रह रहा होगा। बस, उन्होंने मन में ठान लिया कि मैं इस व्यक्ति के साथ जान-पहचान ज़रू करूँगा। उन्होंने उस समय यह हिसाब-किताब नहीं लगाया कि इससे जान-पहचान करने में कितना फायदा होगा ओर कितना नुकसान। उनका तो सीधा-सादा सिद्धान्त था कि ‘‘साधु ते होई न कारज हानि’’। यानि कि यदि अच्छे व्यक्ति से परिचय बढ़ाया जाता है तो हो सकता है कि उससे कभी कोई फायदा न हो। हो सकता है कि कभी फायदा हो भी जाए। इसके बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह बात तो पक्के तौर पर कहीं जा सकती है कि कम से कम नुकसान तो नहीं होगा। तो जहाँ घाटा होने की कोई आशंका ही न हो और फायदा होने की संभावना ढ़ेर सारी हों, वहाँ परिचय कर लेने में घाटा ही कहाँ है। इसी सिद्धान्त के तहत हनुमानजी ने उस समय जिस शख्स से पहचान करने की ठानी वह शख्स था-विभीषण।