Posted on 16-Apr-2015 02:05 PM
कवि रहीम प्रातः उठकर, नित्यकार्यों से निवृत्त होकर अपने घर के बाहर दान देने के लिये बैठ जाते थे। याचक आते और ले जाते। आते जाते लोग देखते कि रहिम दान भी देते हैं और देते समय अपनी नजरें झुका लेते हैं। वह धर्म संस्कृति का समन्वय काल था। गोस्वामी तुलसी दास जी भी थे। किसी ने तुलसीदास जी को पत्र लिख दिया कि रहीम ऐसा क्यों करते हैं। तुलसीदास जी को हँसी आ गई और कवि रहिम को कविता रूपी दोहों के माध्यम से पूछ लिया।
ऐसी देनी देन जूं कित सीखे हो सेन।
ज्यों ज्यों ऊँचों करो, त्यों त्यों नीचे नैन।।
पत्र कवि रहीम जी तक पहुँचा, पढ़ा तो उन्हें भी हँसी आ गई। मन ही मन कहने लगे तुलसीदास जी तो सर्वज्ञ हैं फिर भी मेरा मान बढ़ाने के लिये पूछ रहे हैं। कवि रहीम ने भी उसी तरह उत्तर लिख दिया।
देन हार कोई और है, देत रहै दिन रैन।
लोग भरम मेरा करे, तांसो नीचे नैन।।
इसी प्रकार एक बार अर्जुन ने भी भगवान श्रीकृष्ण से पूछा था कि प्रभू कौनसा दान सफल है। भगवान ने कहा - रेगिस्तान में वर्षा, भूख से व्याकुल व्यक्ति को भोजन, निर्धन, असहाय को दिया गया दान ही सफल है अर्थात् वही दान वांछित फल प्रदान करने वाला होता है।
दीन व्यक्ति को दिया गया आपका दान उसकी आवश्यकतांए, परिवार हेतु भोजन, वस्त्र, आवास, दवा आदि के काम आता है। याचक के मन में आपके प्रति कृतज्ञता, श्रद्धा आती है और वो व्यक्त भी करता है। उसके हृदय से निकले हुए धन्यवाद के दो शब्द ही आपके दान का प्रतिफल है। जो दाता के लिये शुभ और मंगलकारी होता है। हाँ ये आवश्यक है कि दान देते समय आप याचक की पात्रता अवश्य देख लेवें। आपका दिया हुआ दान किसी गलत रास्ते तो नहीं जा रहा है और हमारा मानना ये है कि किसी विकलांग, असहाय, पीडि़त व्यक्ति से अच्छा पात्र हो ही नहीं सकता। वैसे तो दान कई प्रकार के होते हंै। श्रमदान, जीवनदान, वस्त्रदान, अभयदान आदि। बहुत लोग तो अपने संस्कारों के वशीभूत होकर दान किया करते हैं। शायद वे घी में घी डालने का प्रयास कर रहे हैं।