Posted on 23-Jul-2016 11:54 AM
कर्तव्य पालन की इच्छा में व्यवधान आने से क्रोध उत्पन्न हो जाता है और कर्तव्य पालन की इच्छा पूर्ण होने से लोभ उत्पन्न हो जाता है। जो मनुष्य दोनों स्थितियों में सम-भाव में रहता हुआ निरन्तर अपने कर्तव्य पालन में लगा रहता है, वह क्रोध, लोभ और कामना रूपी सीढ़ियों को पार करके शीघ्र ही लक्ष्य यानि ‘‘मोक्ष‘‘ को सहज रूप से प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार पहली कक्षा को पास किये बिना कोई भी छात्र दूसरी कक्षा को पास नहीं कर सकता है और दूसरी कक्षा को पास किये बिना तीसरी कक्षा को पास करना असंभव है, उसी प्रकार क्रोध रूपी पहली सीढी़ को पार किये बिना कोई भी मनुष्य लोभ रूपी दूसरी सीढ़ी को पार नहीं कर सकता है और लोभ के त्याग के बिना तीसरी सीढ़ी यानि कामनाओं से मुक्त होना असंभव है। इच्छाओं की पूर्ति होने पर ही कामनाओं का अन्त संभव होता है, लेकिन एक इच्छा पूर्ण होने के पश्चात नवीन कामना के उत्पन्न होने के कारण कामनाओं का अंत नहीं हो पाता है। इच्छाओं के त्याग करने से कामनाओं का मिटना असंभव है, केवल यही ध्यान रखना होता है कि इच्छा की पूर्ति के समय कहीं कोई नवीन कामना की उत्पत्ति तो नहीं हो रही है। कामना पूर्ति के लिये ही मनुष्य को बार-बार शरीर धारण करके इस भवसागर में सुख-दुख रूपी भंवर में फंसकर गोते खाने ही पड़ते हैं, बार-बार शरीर धारण करने की प्रक्रिया से मुक्त होने पर ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य ‘‘मोक्ष’’ की प्राप्ति होती है। ‘‘मोक्ष’’ ही वह लक्ष्य है जिसे प्राप्त करने के पश्चात कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति मनुष्य शरीर में रहते हुए ही होती है। जिस मनुष्य को शरीर में रहते हुये मोक्ष का अनुभव हो जाता है, उसी का मनुष्य जीवन पूर्ण होता है। इस लक्ष्य की प्रप्ति के बिना सभी मनुष्यों का जीवन अपूर्ण ही है।