मानस योग साधना

Posted on 23-Jul-2016 11:57 AM




बड़े भाग मानुष तन पावा।

सुर दुर्लभ सद ग्रंथन्हि गावा।।

 

मानव शरीर अनमोल है। लाखों योनियों में भटकते हुए जीव पर जब ईश्वर अहेतू की दया करता है तब कहीं जाकर यह मानव शरीर मिलता है। किंतु हम इस हीरे को कौड़ी बराबर भी नहीं समझते और रात - दिन इसका दुरूपयोग करते रहते हैं। भगवान ने अति विकसित बुद्धि दी ताकि हम इसका सदुपयोग करके संसार की यथार्थ खोज कर इसके बंधन से मुक्त हो सकें किंतु हमने इस बुद्धि को संसार में न लगाकर उस भगवान में लगा दिया जो बुद्धि से परे हैं। परिणाम, हम संसारन में फंसते गये और प्रभु से दूर होते गए। भगवान ने हमें अति सुंदर प्रेम और भावों से भरा हृदय दिया ताकि उस हृदय को प्रभु को समर्पित कर दिव्य प्रेम में सराबोर हो सकें किंतु हमने उस दिल को दुनिया के मिथ्या नाते रिश्तों में लगा दिया। परिणाम, हम प्रेम के सागर में रहते हुए भी प्रेम से वंचित रह गये। भगवान ने हमें अति सबल दो हाथ दिए ताकि हम निष्काम भाव से कर्म करते हुए संसार सागर से तर सकें। अपने कर्म समर्पित कर उसका दिव्य प्रेम पा सकें किंतु हमने इनका दुरूपयोग किया दिशाहीन क्रियाएँ करने में। कर्म न करके कर्मकाण्ड को अपना आश्रय बनाया। परिणाम, अभी तक तो कुछ हासिल हुआ नहीं है, भविष्य में होगा, इसकी संभावना भी कम ही है। जीवन भर हमें कोई लाख समझाए, हम समझने को तैयार नहीं हैं किंतु हमें समझ आता है तब जब जीवन के अंतिम क्षणों में मृत्यु हमारे सामने आकर खड़ी होती है और हम खाली हाथों को मसलते रह जाते हैं। तब हम कुछ क्षणों की मोहलत पाना चाहते हैं मानो अपनी सारी गलतियों को क्षण भर में सुधार डालेंगे। किंतु मित्रों, तब तक बहुत देर हो जाती है और देवदुर्लभ यह शरीर एक बार फिर मिट्टी में मिल जाता है। अभी भी समय है जागने का। कौन जाने, कुछ समय शेष हो, उसका सदुपयोग कर लो। अपने अंदर बैठे सच्चिदानंद प्रभु को जगो, सारी बिगड़ी बन जायेगी। ईश्वर आपको शक्ति और सामथ्र्य प्रदान करे।

साभारः- माँ मालती


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