Posted on 30-Apr-2015 02:34 PM
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में भोजन के बारे में विस्तार से चर्चा की हैं कैसा भोजन करने से हमारे भीतर कैसा वातावरण बनता है। एक किवदन्ती में कहा गया हैं कि .... जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन।
भगवान श्रीकृष्ण बताते है कि प्रत्येक व्यक्ति को भोजन भी अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार अच्छा लगता है। आयु, बुद्धि, बल और आरोग्य सुख बढाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थित रहने वाले तथा स्वभाव के अनुसार अपने मन को भाने वाले, ऐसे आहार करने वाला व्यक्ति सात्विक प्रकृति का होता है तथा कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे दाह कारक और दुःख चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाला खाद्य पदार्थ, राजस प्रकृति के व्यक्ति को अच्छा लगता है।
जो भोजन अधपका, रसरहित दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट हो और अपवित्र हो, ऐसा भोजन करने वाला व्यक्ति तामसी प्रकृति का होता है। जो शास्त्र विधि से नियत कार्य करता है वही व्यक्ति सात्विक कहलाता है।
भोजन आधा कीजिये, पानी दुगुना पीव।
तिगुना श्रम, चैगुनी हँसी वर्ष सवा सौ जीव।।
आवश्यक व्यायाम, योगा व प्रातः भ्रमण के साथ सन्तुलित आहार से बढ़ती उम्र के साथ इस देह-देवालय को स्वस्थ रखा जा सकता है। आहार शरीर को चलाने के लिये किया जाता है। आहार से क्षारिय तत्व अधिक व अम्लीय तत्व कम होने चाहिये।
गीत
करता केवल पेट भराई।
लोभी व्यक्ति कभी न सोचे,
अपनी और पराई।।
चोरी करता, हत्या करता,
लोभी पाप कमाता।
लोभी के वश में होती है,
झगड़ा और लड़ाई।।
समझदार और मूर्ख में,
अन्तर इतना आय।
एक सुधारे गलतियां,
दूजा करता जाय।।