Posted on 04-May-2015 02:11 PM
पहला, सम्यक दृष्टि अर्थात् जैसा है, वैसा ही देखना अपनी धारणाओं को बीच में लाकर नहीं देखना। आँख निर्दोष हो जैसे दर्पण खाली हो, यदि दर्पण पर धुल पड़ी हो कोई रंग लगा हो तो कोई पक्ष पड़ा हो तो जैसा सत्य है, वैसा दिखाई नहीं पड़ता। सम्यक दृष्टि का अर्थ है सभी दृष्टियों से मुखत निष्पक्ष।
दूसरा सूत्र सम्यक संकल्प। इसका अर्थ है कि जो करने योग्य है वह करना और उस पर पूरा जीवन लगा देना। करना किसी अहंकार के कारण न हो, वही सम्यक संकल्प। ऐसा संकल्प जो बोध से हो, जीवन की प्रौढ़ता से हो, क्षणिक उत्साह, लोग क्या कहेंगे इस भावना से न हों। जिसमें बाहरी उत्साह नहीं हो आतंरिक उत्साह हो।
तीसरा है सम्यक वाणी-जैसा है वैसा ही कहना। अपनी मिलाकर, बदल कर नहीं, ऐसा नहीं कि भीतर कुछ है और बाहर कुछ। वाणी में हृदय की सही अवस्था प्रकट हो। जो बोलना है, वही बोले, असार न बोले जितनी आवश्यकता हो जिसके बिना काम न चले। अधिक बोलने से बड़ी दिक्कते होती है, जीवन व्यर्थ के जाल में फंस जाता है।
चैथा है सम्यक कर्म अर्थात वही करना जो हृदय करने को कहे। ऐसा नहीं कि कोई कहे वैसा कर दें। करें वही जो स्वयं को करने योग्य लगे। व्यर्थ काम नहीं, वही काम जिससे जीवन का सार मिले। व्यस्त रहना, कुछ न कुछ करते रहना जरूरी नहीं है। करना वही जो जरूरी हो, उसी को बुद्ध सम्यक कर्म कहते हैं।
पांचवा सम्यक आजीव। आजीव का अर्थ आजीविका से है। रोटी तो कमानी ही है पर आजीविका सम्यक हो,
विध्वंसात्मक न होकर सृजनात्मक हो और जीवन को परमात्मा की तरफ ले जाने वाली हो। बुद्ध कहते है कि अपने जीने के लिए किसी का जीवन नष्ट करना अनुचित है। आजीविका ऐसी हो जिससे किसी का अहित न होता हो। यदि कोई दूसरे का अहित करता है तो वह अपने ही अहित के बीज बोता है।
छठा है सम्यक व्यायाम। यहाँ व्यायाम का अर्थ श्रम से, सम्यक श्रम न तो आलस्य और न ही अति कर्मठता है जहाँ दौड़ रूके ही नहीं। दोनों का मध्य मार्ग है सम्यक व्यायाम, जहाँ जीवन की ऊर्जा संतुलित हो।
सातवा है सम्यक स्मृतिः- बुरे विचारों को अपने मन में न रखना और अच्छे विचारांे के द्वारा अच्छी सोच रखना।
आठवा सूत्र है सम्यक समाधि अर्थात् मन बंद हो जाए और होश भी बना रहे। असली बात जाग्रत रह कर आनंद को उपलब्ध होना, उसी को बुद्ध ने सम्यक समाधि कहा है। अंतिम दो चरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सम्यक स्मृति परिधि पर और सम्यक समाधि केंद्र पर। परिधि पर होश हो और फिर केंद्र में भी होश की ज्योति जले तो ही सम्यक समाधि।
दुःख निरोध की अवस्थाः-जब इस बात का अहसास हो गया कि जब जीवन है तो दुःख अवश्यभावी है, फिर कारण पर विचार किया और उन कारणों को दूर करने के लिये आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण कर सातवंे-आठवें सूत्र तक पहुंचे तो निदान हो गया, उपाय हो गया कारण मिट गये, तब चैथा आर्य सत्य सुख की अवस्था आ गई। इसे निर्वाण की अवस्था महासुख की अवस्था कुछ भी कहा जा सकता है। इस अवस्था में आने पर मनुष्य की सभी तृष्णाएं समाप्त हो जाती हैं तो फिर उसका पुनः जन्म लेकर इस संसार में आने का कोई कारण नहीं रह जाता। जैसे ही दुःख समाप्त हुए, संसार की यात्रा समाप्त हो गई। फिर वह व्यक्ति का अन्तिम पड़ाव रह जाता है। एक बार दुःख निरोध की अवस्था या महासुख को उपलब्ध करने पर शरीर छोड़ने के उपरान्त वह पुनः नहीं लौटता। ज्योति में ज्योति मिल जाती है। अन्य शब्दों में वही निर्वाण है, यही तो फिर मोक्ष है। जब ज्योति में ज्योति विलुप्त हो गई तो सूक्ष्म शरीर में समाहित इच्छाएं, तृष्णाएं, अहंकार, अस्मिता आदि जो पुनर्जन्म लेने का कारण बनती है, वे ही नहीं रहती तो वह आत्मा भैतिक शरीर के समाप्त होेने के बाद आवागमन से मुक्त हो जाती है। भारतीय अध्यात्म में इस महासुख से बढ़कर जीवन की अन्य कोई अपलब्धि नहीं मानी गई है। इन चार आर्यसत्यों के माध्यम से भगवान बुद्ध ने व्यक्ति को चरम सीमा तक पहुंचने का मार्ग बताया है।
मन सभी प्रवृत्तियों का अगुआ है
शारीरिक लक्षण दरअसल मन के लक्षण का रुपक मात्र हैं । अधिकांश रोगियों में हमें मानसिक लक्षणों के आधार पर चुनाव करने से ही सफलता मिल जाती है । अगर हम भगवान् बुद्ध के दर्शन का अवलोकन करे और उसे होम्योपैथी के प्रवर्तक डां हैनिमैन के सिद्धातों के अनुरुप देखें तो एक ही बात साफ दिखाई पडती है और वह है हमार मन । तभी तो भगवान बुद्ध कहते हैंःवह है हमार मन । तभी तो भगवान बुद्ध कहते हैंः
मन सभी प्रवत्तियों का अगुआ है , मन ही प्रधान है , सभी धर्म मनोनय हैं । जब कोई व्यक्ति अपने मन को मैला करके कोई वाणी बोलता है , अथवा शरीर से कोई कर्म करता है तो दुःख उसके पीछे ऐसे हो लेता है , जैसे गाड़ी के चक्के बैल के पीछे हो लेते हैं ।
जब कोई व्यक्ति अपने मन को उजला रख कर कोई वाणी बोलता है , अथवा शरीर से कोई ऐसा कर्म करता है तब सुख उसके पीछे ऐसे हो लेता है जैसे कभी संग न छोड़ने वाली छाया संग-2 चलने लगती है ।