नीति के दोहे

Posted on 09-Aug-2016 10:47 AM




भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।

देखहु कस जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा।।

भावार्थ- आज कौसल्या को विधाता बहुत ही दाहिने (अनुकूल) हुए हैं, यह देखकर उनके हृदय में गर्व समाता नहीं। तुम स्वयं जाकर सब शोभा क्यों नहीं देख लेतीं, जिसे देखकर मेरे मन में क्षोभ हुआ है।

पूतु बिदेस सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें।

नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु भूप कपट चतुराई।।

भावार्थ- तुम्हारा पुत्र परदेस में है, तुम्हें कुछ सोच नहीं। जानती हो कि स्वामी हमारे वश में हैं। तुम्हें तो तोशक-पलँग पर पडे-पडे नींद लेना ही बहुत प्यारा लगता है, राजा की कपटभरी चतुराई तुम नहीं देखतीं।


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