Posted on 18-May-2015 12:41 PM
काशी में गंगा तट पर बनी झोंपड़ी में रैदास अपनी पत्नी के साथ रहते और झोंपड़ी के बाहर बैठकर जीविकापार्जन हेतु जूते गाँठते थे। जो-कुछ मिल जाता, उसी से गुजर-बसर करने में उन्हें सन्तोष था। एक दिन एक साधु घूमते हुए रैदास के पास आया। उसने उनकी गरीबी देखकर झोली में से एक पत्थर निकाला और कहा-‘यह पारस पत्थर है। लोहे को सोना बना देता है।’ इतना कह कर उस साधु ने लोहे का एक टुकड़ा लिया और उसे सोने का बना कर दिखा दिया। रैदास ने कहा - ‘महाराज! अपनी इस नियामत को अपने पास ही रखिए। मुझे नहीं चाहिए। अपनी मेहनत से जितना कमा लेता हूँ, वही मेरे लिए काफी है। पसीने की कमाई का आनन्द ही अलग है।’
पर साधु ने जब अधिक आग्रह किया तो रैदास ने कहा-‘महाराज! आप यह पारस पत्थर राजा को दे दें। वह बड़ा गरीब है। उसे हर घड़ी पैसों की जरूरत रहती है या फिर दीजिए उस गरीब मन वाले धनी को, जो रात-दिन पैसे के पीछे पागल रहता है।’ इतना कह कर रैदास जूते गाँठने के अपने काम मे तल्लीन हो गया।