Posted on 03-Jun-2015 05:13 PM
रहीमदास प्रातः उठकर, नित्यकार्यांे से निवृत्ति पा कर अपने घर के बाहर दान देने के लिये बैठ जाते थे। याचक आते और ले जाते। आते-जाते लोग देखते कि रहीमदास दान भी देते हैं ओर देते समय अपनी नजरें झुका लेते हंै। वह धर्म संस्कृति का समन्वय काल था। गोस्वामी तुलसीदास जी भी उस काल में ही थे। किसी ने तुलसीदास जी को पत्र लिख दिया कि रहीमदासजी ऐसा क्यों करते हंै। तुलसीदास जी को हँसी आ गई और रहीमदास को कविता रूपी दोहों के माध्यम से पूछ लिया-
ऐसी देनी देन जूं कित सीखे हो सेन।
ज्यों ज्यों कर ऊँचों करो, त्यों त्यों नीचे नैन।।
पत्र रहीमदासजी तक पहुँचा, पढ़ा तो उन्हें भी हँसी आ गई। मन ही मन कहने लगे तुलसीदास जी तो सर्वज्ञ हंै फिर भी मेरा मान बढ़ाने के लिये पूछ रहे हंै। रहीमदासजी ने भी उसी तरह उत्तर लिख दिया-
देन हार कोई और है, देत रहे दिन रैन।
लोग भरम मेरा करे,तांसो नीचे नैन।।
इसी प्रकार एक बार अर्जुन ने भी भगवान श्रीकृष्ण से पूछा था कि प्रभू कौनसा दान सफल है। भगवान ने कहा-रेगिस्तान में वर्षा, भूख से व्याकुल व्यक्ति को भोजन, निर्धन, असहाय को दिया गया दान ही सफल है। अर्थात् वही दान वांछित फल प्रदान करने वाला होता है। दीन व्यक्ति को दिया गया आपका दान उसकी आवश्यकताएँ, परिवार हेतु भोजन, वस्त्र, आवास, दवा आदि के काम आता है। याचक के मन में आपके प्रति कृतज्ञता, श्रृद्धा आती है और वो व्यक्त भी करता है। उसके हृदय से निकले हुए धन्यवाद के दो शब्द ही आपके दान का प्रतिफल है। जो दाता के लिये शुभ और मंगलकारी होता है। हाँ ये आवश्यक है कि दान देते समय आप याचक की पात्रता अवश्य देख लेवें। आपका दिया हुआ दान किसी गलत रास्ते तो नहीं जा रहा है औेर हमारा मानना ये है कि किसी विकलांग, असहाय, पीडि़त व्यक्ति से अच्छा पात्र हो ही नहीं सकता।