समग्र कर्म का महत्व

Posted on 09-Jun-2016 11:27 AM




किसी वृद्ध और किसी युवा में कोई मौलिक अंतर नहीं होता, क्योंकि दोनों अपनी ही आकांक्षाओं और परितुष्टिओं के दास होते है। परिपक्वता का आयु से कुछ लेना-देना नहीं होता है। वह तो सूझबूझ से आती है। युवाओं मे जिज्ञासा की उत्कंठ भावना शायद बहुत सहज रूप मंे होती है, क्योंकि वयोवृद्ध लोगों का तो जीवन चूर-चूर कर चूका होता है, द्वंद्वों के कारण वे चूक गए होते है। कितने ही वयस्क लोग अपरिपक्व, बल्कि बचकाने होते है और यह बात विश्वव्याप्त विभ्रम और दुःख को बढ़ाने वाले कारणों में से एक है। वयस्क लोग ही है, जो आर्थिक और नैतिक अव्यवस्था के हावी रहने के लिए जिम्मेदार है। हमारी दुर्भाग्यपूर्ण दुर्बलताओं मे से एक यह है की हम चाहते है कि हमारें लिए कोई और हमारे जीवन की दिशा व दशा बदल दें। ये सुरक्षा और सफलता ही है, जिनके पीछे हममे से अधिकतर लोग पडे़ रहते है। वह मन जो सुरक्षा चाहता है, सफलता का दीवाना है, वह प्रज्ञाशील नहीं होता और इसीलिए वह कोई भी कर्म समग्र रूप से करने में अक्षम रहता है।


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