Posted on 02-May-2015 12:46 PM
मेवाड़ पर मुगलों के निरन्तर आक्रमणों से महाराणा प्रताप को जब अपने सामन्तों के साहस में कमी दिखाई दी तो उन्होंने सभी को एकत्रित कर उनके सामने रघुकुल की मर्यादा की रक्षा और मेवाड़ को पूर्ण स्वतंत्र करने का विश्वास दिलाया। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक मेवाड़ को पूर्ण स्वतंत्र नहीं करा लूँगा तब तक राजमहल में नहीं रहूँगा, पलँग पर नहीं सोऊँगा और पंच धातु के पात्रों में भोजन नहीं करूँगा। प्रताप ने अपनी इस प्रतिज्ञा का आजीवन निर्वाह भी किया और मेवाड़ की मान-मर्यादा को अक्षुण्ण रखते हुए न तो मुगल सम्राट अकबर से हार मानी और न ही अधीनता स्वीकार की।
स्वामीभक्त चेटक - प्रताप जब राजकुमार थे, कंधार का एक व्यापारी नीले रंग के अश्व ‘चेटक’ और ‘नाटक’ को बेचने के लिए आया। घोड़ों की विशेषताएँ सुनकर प्रताप ने व्यापारी को बुलाया और घोड़ों की परीक्षा करने के लिए ‘नाटक’ को एक विशाल मैदान में खड़ा कर उसके खुरों को लोहे की किसी मजबूत वस्तु के साथ जमीन में गड़वा दिया। इसके बाद प्रताप उस पर सवार हुए और चाबुक मार कर एड़ लगाई। घोड़े के चारों खुर जमीन में ही गड़े रह गए और वह लहूलुहान हालत में भी काफी देर तक दौड़ता रहा। घोड़े को रोक कर ज्यों ही प्रताप नीचे उतरे, घोड़ा गिर पड़ा और मर गया। प्रताप ने उसके साहस की प्रशंसा करते हुए दोनों घोड़ों का मूल्य चुका कर नीले ‘चेटक’ को खरीद लिया। इसी ‘चेटक’ के लिए प्रसिद्ध है कि वह एक टाँग कट जाने पर भी हल्दीघाटी के रणक्षेत्र से प्रताप को बचाकर ले गया और प्राण त्यागे। धन्य है वीरवर ‘प्रताप’ और ‘चेटक’।