Posted on 24-May-2015 03:53 PM
परिवार को सुसंस्कृत तथा उन्नतिशील बनाने में वृद्धजनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके संचित अनुभवों से बहुत लाभ उठाया जा सकता है। प्राचीनकाल में गुरूजनों का बहुत आदर-सम्मान किया जाता था। भारतीय समाज में बड़ों के प्रति सम्मान तथा प्रणाम करने की प्रथा रही है।
प्रातःकाल उठि के रघुनाथा।
माता-पिता-गुरू नावहिं माथा।।
बड़े लोगों को घर का मुखिया माना जाता था। प्रत्येक व्यक्ति उनकी आज्ञा का पालन करता था। इस समय संयुक्त परिवार प्रणाली इसीलिए असफल हो रही है कि बच्चों को बड़ों का सम्मान करना नहीं सिखाया जाता। बच्चे जो देखते हैं वही करते हैं। एक महिला अपनी सास को मिट्टी के बर्तनों में खाना देती थी। कुछ दिन बाद जब उसके बेटे की बहू आई तो उसने समझा कि इस घर में सास को मिट्टी के बर्तनों में भोजन देने का रिवाज है। इसलिए उसने मिट्टी के बर्तन धोकर रखने शुरू कर दिए। एक दिन उस महिला ने मिट्टी के बर्तनों का ढेर देखा तो कहने लगी-“बहु यह क्या है ?यह बर्तनों का ढेर क्यों लगा रखा हैं ?” बहू ने कहा-“माँ जी ये बर्तनों का ढेर मैंने आपके लिए रखा है। आप तो रोज बर्तन मँगा लेती हो पर मैं आपके लिए रोज नए मिट्टी के बर्तन कहाँ से मँगाऊँगी। इसलिए मैंने इन्हें धोकर रख दिया है।” यह सुनकर उस महिला की आँखें खुल गईं और उसने अपनी सास को मिट्टी के बर्तनों में खाना देना बंद कर दिया। इस प्रकार की कथाएँ यह सिद्ध करती है कि यदि वृद्धावस्था मैं बच्चों का सुख उठाना है तो इन्हें अच्छे संस्कार देने चाहिए और गुरूजनों के प्रति अच्छा व्यवहार करना चाहिए।
-‘प्रज्ञापुराण से साभार’