Posted on 09-Nov-2015 03:59 PM
काशी में एक कर्मकांडी पंडित का आश्रम था, जिसके सामने एक जूते गांठने वाला बैठता था। वह जूतों की मरम्मत करते समय कोई न कोई भजन जरूर गाता रहता था। पंडित जी का ध्यान कभी उसके भजन की तरफ नही ंगया। एक बार पंडित जी बीमार पड़ गए और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। उस समय उन्हें वे भजन सुनाई पडे़। उनका मन रोग से हटकर भजनों की तरफ जाने लगा। धीरे-धीेरे उन्हें महसूस हुआ कि जूते गांठने वाले के भजन सुनते-सुनते उनका दर्द कम हो रहा है।
एक दिन उन्होेनें शिष्य को भेजकर मोची को बुलाया और कहा, ‘‘भाई! तुम तो अच्छा गाते हो। मेरा रोग बडे़-बडे़ वैद्यों के इलाज से ठीक नही हो रहा था। तुम्हारे भजन सुनकर मैं ठीक होने लगा हूं।’’ उन्होंने उसे एक सोने का सिक्का देते हुए कहा, ‘‘तुम इसी तरह गाते रहना।’’
सिक्का पाकर जूते गांठने वाला बहुत खुश हुआ लेकिन पैसा पाने के बाद उसका मन कामकाज से हटने लगा। वह भजन गाना भूल गया। दिन-रात यही सोचने लगा कि सिक्के को कहां संभाल कर रखे? काम में लापरवाही के कारण धीरे - धीरे उसकी दुकानदारी चैपट होने लगी।
उधर भजन बंद होने से पंडित जी का ध्यान फिर रोग की तरफ जाने लगा। उनकी हालत फिर बिगडने लगी। एक दिन अचानक जूते गांठने वाला पंडितजी के पास पहुंच कर बोला ‘‘आप अपना ये सोने का सिक्का रख लीजिए।’’
पंडित जी ने पूछा, ‘‘क्यों, क्या किसी ने कुछ कहा है?’’
जूते गांठने वाला बोला, ‘‘कहा तो नहीं लेकिन इस सिक्के को अपने पास रखूंगा तो आपकी तरह मैं भी बिस्तर पकड़ लूंगा। इसी सिक्के ने मेरा जीना मुश्किल कर दिया। मेरा गाना भी छूट गया। कामकाज ठप्प हो गया। मैं समझ गया कि अपनी मेहनत की कमाई में जो सुख है, वह पराए धन में नहीं है।