Posted on 11-May-2015 11:58 AM
सेवा पारस तत्व हैं, लौह स्वर्ण हो जाय।
सभी पदारथ जगत के, सेवा से मिल जाय।।
टूटा फूटा झोंपड़ा। मिट्टी और गारे की दीवारें। कांटों और घास से ढ़की हुई छत। घर का स्वामी दुबला पतला कि उसकी पसलियाँ भी दिखाई पड़ रही थी। लगभग दस वर्ष से वह इसी गरीबी की चक्की में पिसा जा रहा था। घर के स्वामी का नाम था-रूपा। हमारे साधकों ने राम राम करते करते सर्वेक्षण का कार्य आरम्भ किया। साधकों ने पूछा क्या काम करते है आप? कितना कमा लेते है। बेचारे अपनी दयनीय स्थिति पर कुछ बोल नहीं पाए। फिर दुबारा पूछा तो बोले दस साल से कुछ भी नहीं कमाया। मेरी घर वाली बेचारी जंगल और पहाडि़यों से लकड़ी काट कर लाती है। उसका पारिश्रमिक दस या बारह रूपया मिल जाता है। उसी से मेरे चार बच्चों का और मेरा भरण पोषण चल जाता है। लेकिन जब कभी लकडि़याँ नहीं मिलती तो उस दिन हमें फाका मारना पड़ता है। कहते कहते रूपा जी की आँखे बरसने लगती है। उनके चेहरे और मुखाकृति से साफ झलक रहा था कि महिने में चार पाँच बार तो ऐसा दिन आ ही जाता है। जब घर में दोनो समय का चूल्हा नहीं जल पाता।
रूपा जी के दुःख की कहानी सुनते-सुनते हमारे साधकों के मन पिघल गये। उनकी आँखों के पोरों पर आंसुओं के मोती चमकने लगे। साधकों ने तत्काल उस घर में गेहूँ और अन्य सामग्रियाँ रखवाई। देखते ही देखते सारा वातावरण बदल गया था। आटा दाल, तेल, नमक, मिर्ची घर में आते ही रूपा जी के बच्चे उछल उछल कर नाचने लगे। मानो उन्हें कोई कुबेर का खजाना मिल गया हो। साधकों को भी आत्म शान्ति आत्मिक और आनन्द प्राप्त हो गया। सब को उस घर में प्रसन्नता का साम्राज्य देख कर आनन्द मिला कि वो भुलाया नहीं जा सकता।
पितु मात की आज्ञा पालक हो, सेवक समाज का कहलाये।
मानव है वही इन दुनिया में, जो मानवता दिखला जाए।।
बिन सेवा जीवन नहीं, बिन सेवा सब धूल।
बिन सेवा मानव नहीं, सेवा सबका मूल।।
- कैलाष ‘मानव’ पद्मश्री अलंकृत