Posted on 04-May-2015 12:52 PM
माना कि हमारे पास बाँटने के लिए अपार धन नहीं परंतु एक अपाहिज़ की सेवा के लिए हाथ तो हैं। परवाह नहीं यदि हमारे पास भूखों को देने के लिए अन्न-भंडार नहीं पर दो मीठे बोल तो हम दुःखीजनों को दे ही सकते हैं। परवाह नहीं जो हम सर्वथा साधनहीन हों, परंतु कराहती मानवता के दग्ध हृदय को अपने आंसू से, अपनी करुणा से नहला तो सकते हैं, उसके कलेजे को सहलाकर उसमें खटकता कांटा तो निकाल सकते हैं। थके हारे, जीवन की बाज़ी खो चुके, लड़खड़ाते इन्सान के टूटते विश्वास का सहारा तो बन सकते हैं। जिसकी आँखों का, जिसके दिल की कोठरी का दीया निराशा की आंधियों मंे बुझ चुका है- उसके लिए और कुछ नहीं तो अंधेरे की लाठी तो बन ही सकते हैं। ऐसा कोई आदमी नहीं जिसके पास देने के लिए कुछ न हो। ऐसा समय नहीं, जब कुछ न दे सकते हों। अपने लिए सभी रोते हैं, इसलिए संसार में सर्वत्र दुःख है, छटपटाहट है, पराजय और पीड़ा है। कभी दूसरों के लिए हम रो कर देखें, एक ही बार, आजमाइश के तौर पर। हमें भी वही आनंद, वही स्वाद मिलेगा कि फिर अपने रोने का नाम भी न लंेगे। इसलिए हम अपने बच्चों के लिए जियें, अपनी पत्नी के लिए जियें, अपने माता-पिता, बंधु-बांधवों, अपने देश के लिए, सारी मानवता के लिए जियें। जिस सीमा तक हम दूसरों के लिए जियेंगे, उसी सीमा तक आनंद के निकट होते जायेंगे।
राम ने पिता के वचन के लिए दे दिया, भरत ने उसी राज्य में रहते हुए राज छोड़ दिया; कृष्ण ने सब कुछ पाकर भी सबकुछ छोड़ दिया; बुद्ध ने दुःखी मानवता के सुख का अनुसंधान करने के लिए सांसारिक वैभव का त्याग कर दिया, दूसरे जियें, इसीलिये ईसा ने अपना जीवन दिया, राष्ट्रीय एकता के लिए गांधीजी ने गोलियों की बौछार सीने पर झेली, देश सेवा का दीवाना जवाहरलाल महलों का आराम छोड़ आजन्म ’’दरिद्रनारायण’’ के साथ गली-कूचों में डोलता रहा और शांति के उपासक शास्त्री ने धधकती युद्ध की आग को अपनी आहुति से बुझाया। जो अपने को दे देता है, वह सबकुछ पा जाता है। वह साधनहीन होकर भी पूर्ण हो जाता है। यह आत्मदान जड़ में प्राण की सृष्टि करता है। यह समर्पण मरण की सेज पर अमृत हो जाता है। इसलिए हम देते चलें, लुटाते चलें। घंूघट उठाकर अपने हृदय में छिपे परम प्रियतम को निहारें। देखें, बस एक बार देखें, आनंद मिलेगा-मिलकर रहेगा।