अपनों से अपनी बात

Posted on 20-May-2015 02:01 PM




चारों तरफ चहल-पहल, कोई इधर दौड़ रहा है-कोई उधर। हर्षोल्लास के वातारवण में दुल्हे राजा अपने इष्ट मित्रों के साथ पाणिग्रहण संस्कार के बने हए मण्डप की तरफ आये। पण्डित जी ने पाणिग्रहण संस्कार कराने प्रारंभ किये। इन सारे विधि विधान के बीच पंडित जी ने दुल्हे को दादा जी व पड़दादा जी का नाम पूछा? दादा जी का नाम पूछा तो कुछ सोचने के बाद उनको याद आ गया, किन्तु दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी पड़दादा जी का नहीं बता पाये- नाम? हमारे मन में विचार उठे-इनके पड़दादा जी ने तो अपनी सात पीढि़यों के लिये जो बिल्डिंग खड़ी की थी। उन्होंने तो हजारों गरीबों का खून चूसकर भी वैभव के इतने सरंनाम जुटाये थे, और इतनी पूंजी छोड़ गये थे कि उसका ब्याज ही हजारों रूपये माह आता है, फिर भी उन ‘‘बेचारे’’ का नाम उनकी दो पीढ़ी बाद के लड़के को ही विदित नहीं? इन्हीं विचारों को लिये दूसरे दिन जब हम विद्यालय के पास से गुजर रहे थे तो कानों में आवाज सुनाई दी-स्वामी विवेकानन्द की जय! वीर सावरकर की जय! क्या इन महापुरूषों में से किसी का पोता या पड़पोता भी इन बच्चों में से है या नहीं? अपने सद्कर्मों से, त्याग और समाज सेवा से उनके नाम अमर हो गये-पीढ़ी दर पीढ़ी, पर बेचारा वह पड़दादा तो....। प्रभु से प्रार्थना करें- हे! करूणावतार! हमें पवन पुत्र हनुमानजी के दास्य भाव का, भक्ति मति मीरां के समर्पण भाव का तथा स्वामी विवेकानन्द जी की ओजस्विता का कुछ अंश प्रसाद स्वरूप प्रदान कर, ताकि हम सच्चे मानव की तरह सद्कर्म करते हुए जब तक जिएं, चारों तरफ खुशबू फैलाते हुए जिएं। उस रेल यात्री की तरह, जो सफर के दौरान फूलों के बीज बिखेरता हुआ प्रसन्न भाव से अपनी मंजिल को प्राप्त कर रहा था।  - 
श्री कैलाश ‘मानव’ पद्मश्री अलंकृत


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