अभिमान

Posted on 06-Jun-2016 09:47 AM




अच्छाई का अभिमान बुराई की जड़ है। स्वार्थ और अभिमान का त्याग करने से साधुता आती है। अपनी बुद्धि का अभिमान ही शास्त्रों की, सन्तों की बातों को अन्तः-करण में टिकने नहीं देता। वर्ण, आश्रम आदि की जो विशेषता है, वह दूसरों की सेवा करने के लिये है, अभिमान करने के लिये नहीं। आप अपनी अच्छाई का जितना अभिमान करोगे, उतनी ही बुराई पैदा होगी। इसलिये अच्छे बनो, पर अच्छाई का अभिमान मत करो। ज्ञान मुक्त करता है, पर ज्ञान का अभिमान नरकों में ले जाता है। सांसारिक वस्तु के मिलने पर तो अभिमान आ सकता है, पर भगवान के मिलने पर अभिमान आ सकता ही नहीं, प्रत्युत अभिमान का सर्वथा नाश हो जाता है। स्वार्थ और अभिमान का त्याग किये बिना मनुष्य श्रेष्ठ नहीं बन सकता। जहाँ जाति का अभिमान होता है, वहाँ भक्ति होनी बड़ी कठिन है ; क्योंकि भक्ति स्वयं से होती है, शरीर से नहीं। परन्तु जाति शरीर की होती है, स्वयं की नहीं। जब तक स्वार्थ और अभिमान हैं, तब तक किसी के भी साथ प्रेम नहीं हो सकता। अभिमानी आदमी से सेवा तो कम होती है, पर उसको पता लगता है कि मैंने ज्यादा सेवा की परन्तु निरभिमानी आदमी को पता तो कम लगता है, पर सेवा ज्यादा होती है। बुद्धिमानी का अभिमान मूर्खता से पैदा होता है। जो चीज अपनी है, उसका अभिमान नहीं होता और जो चीज अपनी नहीं है, उसका भी अभिमान नहीं होता। अभिमान उस चीज का होता है, जो अपनी नहीं है, पर उसको अपनी मान लिया। जितना जानते हैं, उसी को पूरा मानकर जानकारी का अभिमान करने से मनुष्य ’नास्तिक’ बन जाता है। जिन सम्प्रदाय, मत, सिद्धान्त, ग्रन्थ, व्यक्ति आदि में अपने स्वार्थ और अभिमान के त्याग की मुख्यता रहती है, वे महान् श्रेष्ठ होते हैं। परंतु जिनमें अपने स्वार्थ और अभिमान की मुख्यता रहती है, वे महान् निकृष्ट होते हैं।


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