Posted on 30-Apr-2015 02:10 PM
घर-परिवार के लिए धन की जरूरत तो होती ही है और इसके लिए पुरुषार्थ भी करना पड़ता है। लेकिन धन के प्रति लालसा इस कदर भी न बढ़े कि व्यक्ति अपने जीवन का अर्थ ही भूल जाये। व्यक्ति यह जानते-बूझते भी कि दुनिया में सभी खाली हाथ जन्म लेते हैं और खाली हाथ ही उन्हें मृत्यु को वरण करना होता है। धन के मोहपाश में इतना आबद्ध हो जाता है कि दुर्लभ मानव जीवन की महत्ता को नहीं समझ पाता और उसे आनन-फानन में गँवा बैठता है।
एक व्यक्ति अपने सामान्य कारोबार से खुश था। रोजाना महालक्ष्मी जी के समक्ष घर-संसार की खुशी की कामना करते हुए दीपक जलाता। गाय और श्वान को रोटी देता तथा द्वार आये अतिथि को खाली हाथ लौटने ने देता। लक्ष्मी जी की कृपा से धीरे-धीरे कारोबार फलने-फूलने लगा। ज्यों-ज्यों धन की आवक बढ़ने लगी परिवार को समय कम देने लगा। कुछ समय बाद तो उसने गाय-श्वान को रोटी देने का काम भी नौकर पर छोड़ दिया। धन की बहुलता से उसके इर्द-गिर्द भौतिक सुख-सुविधाओं का अम्बार था। उन्हीं में निमग्नता के कारण लक्ष्मी जी के सामने दीपक जलाकर कुछ माँगने की अब उसने जरूरत नहीं समझी। उसकी तिजोरी धन
से ठसाठस थी। सब प्रकार की सुविधाएँ थीं। एक रात पलंग पर लेटा अपने ऐश्वर्य का आकलन कर रहा था, तभी उसके सामने कोई अस्पष्ट सी आकृति आ खड़ी हुई। उसने घबराकर पूछा-कौन ? उत्तर मिला - ‘मृत्यु’। आकृति अन्तर्धान हो गई, पर वह बेहाल हो गया। बेचैन रहने लगा। खाना-पीना और आराम सब व्यर्थ हो गया। कुछ ही दिनों में चेहरे की रंगत फीकी पड़ गई। बीमारी ने आ घेरा। ज्यों-त्यों दवा की, रोग बढ़ने लगा। कारोबार मेें भी मन्दी आ गई। परिवार के लोग उसे एक महात्मा के पास ले गए। उन्होंने उसकी सारी कहानी को जाना और कहा कि कल से तुम एक हाथ से लो और दूसरे हाथ से देना शुरू करो। मुट्ठी मत बाँधो महात्मा का संकेत उसकी समझ में आ गया। उसने अपनी कमाई का कुछ अंश गरीबों, पीडि़तों के लिए खर्च करना शुरू किया। लक्ष्मी जी के थानक पर फिर से जोत जलने लगी। गाय और श्वान को रोटी देने के बाद ही वह निवाला लेता। रोग, भय सब दूर हो गये। जीवन फिर जगमगा उठा।
ऐसे बहुत से लोग हैं, जो सोचते हैं - जो प्राप्त है, वह पर्याप्त नहीं है। उससे दोगुना-चैगुना चाहिए। इस चाह का कोई अन्त नहीं है। दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं, जो उनके पास है, उसमें से अपनी आवश्यकताओं की कटौती करके भी असहाय, विकलांग, वृद्ध और निर्धन की सेवा में तत्पर रहते हैं। उन्हें न नाम का मोह है और न यश की लिप्सा। प्रभु उनकी झोली कभी खाली नहीं रहने देते। धन-वैभव में वृद्धि की प्रभु कृपा तभी होती है जब हम उनका सद्कार्यों में प्रवाह बनाएँ रखें। बहता हुआ जल ही पवित्र होता और उसी से प्यासे को संतोष मिलता है। अतः हम प्रयास करें कि जो कुछ हमारे पास है, उससे वंचित, असहाय और विकलांग बन्धु-बहिनों की भी सेवा हो। सद्भाव और सेवा के इस भाव से प्रभु प्रसन्न होंगे और आप देखेंगे कि जो आपकी चाह है वह प्रभु कृपा से स्वतः पूरी होती जायेगी। -कैलाश ‘मानव’