Posted on 06-Jun-2015 01:54 PM
वर्तमान में अपने को अथवा दूसरे को निर्दोष स्वीकार करना भी युक्तियुक्त है। यही वास्तव में न्याय है। न्याययुक्त जीवन से समाज में अपने प्रति न्याय करने की सद्भावना स्वतः जाग्रत होती है, जिसके होते ही, दोष को ’दोष’ जानकर, उसे त्याग करने का सद्भाव स्वतः अभिव्यक्त होता है। किसी भय से दोष का ऊपर से त्याग भले ही हो जाए; दोष-जनित सुख का राग नाश नहीं होता। उसी का परिणाम यह होता है कि किसी को भय देकर निर्दोष नहीं बनाया जा सकता; कारण, कि भय स्वयं ही एक बड़ा दोष है। प्राकृतिक विधान के अनुसार किये हुए का फल किसी के लिए अहितकर नहीं होता, अपितु दुःखद तथा सुखद होता है अथवा यों कहो कि व्यक्ति जो कुछ करता है, उससे सुख-दुःखयुक्त परिस्थिति उत्पन्न होती है। प्रत्येक परिस्थिति स्वभाव से ही परिवर्तनशील तथा अभावयुक्त है। जो अभावरहित तथा नित्य नहीं है, वह जीवन नहीं है। जो जीवन नहीं है उससे न तो नित्य सम्बन्ध ही रह सकता है और न आत्मीयता ही हो सकती है। इस दृष्टि से सभी परिस्थितियाँ ऊपरी भेद होने पर भी समान ही अर्थ रखती हैं। प्राप्त परिस्थिति के सदुपयोग का दायित्व मानव पर है, उसके परिवर्तन की लालसा निरर्थक है। लालसा तो वही सार्थक है, जो परिस्थितियों से अतीत के जीवन में प्रवेश करा दें और जो नित्य प्राप्त में आत्मीयता प्रदान कर, प्रियता की अभिव्यक्ति करने में समर्थ हो। परिस्थितियों से अतीत की लालसा की पूर्ति निर्दोषता में निहित है। अतः निर्दोषता को सुरक्षित रखने का दायित्व मानवमात्र पर है। दायित्व की पूर्ति और लक्ष्य की प्राप्ति युगपद् है। अतः अपने प्रति न्याय करते ही निर्दोषता की अभिव्यक्ति, दायित्व की पूर्ति एवं लक्ष्य की प्राप्ति स्वतः हो जाती है।