Posted on 16-Apr-2015 02:34 PM
नारी शक्ति के प्रति सम्मान व प्रोत्साहन प्रदर्शित करने हेतु अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। महिला दिवस के माध्यम से नारी के श्रम, प्रत्येक क्षेत्र में उसकी भागीदारी तथा समाज को उसके समग्र योगदान की तस्वीर प्रदर्शित होती है। इस दिन विश्वभर में स्त्री जाति की स्वतंत्रता के समर्थन में कई समारोह आयोजित किए जाते हैं। विश्व के हर भाग में तथा हर क्षेत्र में स्त्रियाँ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर विकास में भागीदार बन रही हैं। दूसरी ओर, हमारे देश को चलाने वाली धुरी असल में देहाती औरतें ही हैं, जो गाँवों में रहती है। अल सुबह में चार बजे उठकर गोबर कजोड़ा कर गायों-भैंसों का दूध निकालती हैं। पशुओं के लिए चारा खाना तैयार करने के बाद घर का चूल्हा जलाती है तथा पूरे घर के लिए भोजन के प्रबंध में जुटने के साथ ही बूढ़े सास-ससूर को भी वही सम्भालती है। सुबह को शुरू हुआ यह सिलसिला अनगिनत काम निपटाने तक अनवरत चलता रहता है। उनकी दुनिया ससुराल, पीहर,नाते-रिश्तेदारों, अड़ोस-पड़ोस, ब्याह-शादी व मरने तक ही सीमित रह जाती है। यही हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की असली नायिकाएँ भी हैं।में रहती है। अल सुबह में चार बजे उठकर गोबर कजोड़ा कर गायों-भैंसों का दूध निकालती हैं। पशुओं के लिए चारा खाना तैयार करने के बाद घर का चूल्हा जलाती है तथा पूरे घर के लिए भोजन के प्रबंध में जुटने के साथ ही बूढ़े सास-ससूर को भी वही सम्भालती है। सुबह को शुरू हुआ यह सिलसिला अनगिनत काम निपटाने तक अनवरत चलता रहता है। उनकी दुनिया ससुराल, पीहर,नाते-रिश्तेदारों, अड़ोस-पड़ोस, ब्याह-शादी व मरने तक ही सीमित रह जाती है। यही हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की असली नायिकाएँ भी हैं।
अधिकांश भारतीय परिवारों में लड़कियाँ समाज की रूढि़वादी परंपराओं मंे कैद होकर अपना जीवन बिता रही हैं। आज भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने, नौकरी करने जैसे कार्यांे के लिए वह अभिभावकों पर ही निर्भर है। हम यह सोचते हैं कि हम उनकी देखभाल करते हैं, उनका ध्यान रखते हैं, पर वास्तव में सुरक्षा, नैतिकता के नाम पर हम उनकी इच्छाओं का दमन ही कर रहे हैं। समाज द्वारा उन पर ढेरों जवाबदारियां लाद दी गई हैं तथा नैतिकता के नाम पर उन्हें बाँधकर रखा है। यह मत खाओं, वह मत पीओ, यह मत करो जैसे जुमले हमारे आम घरों में सामान्य हैं। सभ्य समाज में भी महिलाओं को चुनने की आजादी नहीं है। अब तो उन्हें भी इसका अहसास भी नहीं रहा है कि हमने उनको निरर्थक सिद्धांतों की बेडि़यों में जकड़ रखा है। एक आम भारतीय पुरुष की मानसिकता ऐसी है कि उसे विवाह करने के लिए चपाती बनाने वाली घरेलू महिला ही चाहिए। चाहे वह अपने जीवन में कितना ही स्वच्छंद रहा हो।