Posted on 15-Jun-2016 12:01 PM
हमें यह बात हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि मन का परमात्मा के साथ घनिष्ठ संबंध है। मन और ब्रह्म दो भिन्न वस्तुएं नहीं हैं। ब्रह्म ही मन का आकार धारण करता है। अतः मन अनंत और अपार शक्तियों का स्वामी है। मन स्वयं पुरुष है एवं जगत का रचयिता है। मन के अंदर का संकल्प ही बाह्य जगत में नवीन आकार ग्रहण करता है। जो कल्पना चित्र अंदर पैदा होता है, वही बाहर स्थूल रूप में प्रकट होता है। सीधी-सी बात है कि हर विचार पहले मन में ही उत्पन्न होता है और मनुष्य अपने विचार के आधार पर ही अपना व्यवहार निश्चित करता है। अगर मन में विचार ही न हों तो फिर क्रियान्वयन कहां से आएगा। शायद इसीलिए कहा गया है कि मन के जीते जीत है और मन के हारे हार। मन का स्वभाव संकल्प है। मन के संकल्प के अनुरूप ही जगत का निर्माण होता है। वह जैसा सोचता है, वैसा ही होता है। मन जगत का सुप्त बीज है। संकल्प द्वारा उसे जागृत किया जाता है। यही बीज, पहाड़, समुद्र, पृथ्वी और नदियों से मुक्त संसार रूपी वृक्ष उत्पन्न करता है। यही जगत का उत्पादक है। सत्, असत् एवं सदसत् आदि मन के संकल्प हैं। मन ही लघु को विभु और विभु को लघु में परिवर्तित करता रहता है। मन में सृजन की अपार संभावनाएं स्वयं द्वारा ही निर्मित की हुई हैं। मन स्वयं ही स्वतंत्रतापूर्वक शरीर की रचना करता है। देहभाव को धारण करके वह जगत रूपी इंद्रजाल बुनता है। इस निर्माण प्रक्रिया में मन का महत्वपूर्ण योगदान है। मन का चिंतन ही उसका परिणाम है। यह जैसा सोचता है और प्रयत्न करता है, वैसा ही उसका फल मिलता है। मन के चिंतन पर ही संसार के सभी पदार्थों का स्वरूप निर्भर करता है। दृढ़ निश्चयी मन का संकल्प बड़ा बलवान होता है। वह जिन विचारों में स्थिर हो जाता है, परिस्थितियां वैसी ही विनिर्मित होने लगती हैं। जैसा हमारा विचार होता है, वैसा ही हमारा जगत।