Posted on 29-Jun-2015 02:13 PM
सेठ लक्ष्मीचन्द के चार पुत्र थे, समय पूर्ण हुआ, परलोक गमन से पहले सबको बुला कर कहा-सुमति है, लक्ष्मी कृपा बनी है, मिल कर रहोगे-सदा सम्पन्न रहोगे और उनका शरीर शांत हो गया।
समय आगे बढ़ा, कुमति आई-लक्ष्मी पूजा की भी उपेक्षा होने लगी, गृह कलह आ गई। माँ लक्ष्मी से देखा न गया, स्वप्न दिया-मैं अब प्रस्थान करने वाली हूँ- चारों मिलकर एक वस्तु माँग लो। सब चिंतित हो गये, आपस में कुछ तय न कर पाये फिर पुनः लक्ष्मीजी ने स्वप्न दिया-अगले सोमवार रात्रि 12 बजे प्रस्थान करूँगी-जो माँगना हो माँग लो! आपस में हताश-निर्णय न होने से रोना धोना शुरू हो गया। वाद-विवाद मंें समय पूरा हो गया।
विशाद देख-बगल से भक्त चरणदास आये, सान्त्वना दी। कारण पूछा-सब पैरों पर गिर पड़े, आप दादा समान हैं, मार्ग दर्शन कीजिये और रोने लगे। माँ लक्ष्मी जी चली जायेंगी, सब विपन्न हो जायेंगे।
जाओ! माँ लक्ष्मी जी से करबद्ध प्रार्थना करके ये वर माँग लो।
”माँ जगतजननी, सर्वदायिनी लक्ष्मी जी हमें सद्बुद्धि और सुमति प्रदान करो।“ ताकि हम जन कल्याण के लिये सद्कार्य कर सकें।
निश्चित समय पर फिर स्वप्न दिया- एक पैर देहरी के बाहर एक अन्दर सबने आर्धनेत्रों से आरती पूजन करके ये वर माँग लिया।
माँ एवमस्तु! कह कर घर के पुराने आसन पर विराज मान हो गई।
वत्स! जहाँ सुमति और सद्बुद्धि का मिश्रण होता है-मुझे वहाँ रहना ही पड़ता है। सद्कार्यों के संकल्पों की पूर्ति, मेरी उपस्थिति के बगैर सम्भव ही नहीं है। मनुष्य केवल संकल्प करता है-बाकी सारी व्यवस्था संकल्पपूर्ति की वहाँ उपस्थित रह कर मुझे करनी पड़ती है। घंटे घडि़याल शंख बजने लगे, सैकड़ों दीपक जलने लगे, प्रकाश ही प्रकाश हो गया, आपस में सब भाई गले मिलकर फूट-फूटकर रोने लगे। चारों भाईयों ने माँ लक्ष्मी के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया।