कब खायें, कब न खायें

Posted on 24-Apr-2015 11:39 AM




हमारा भारतीय कैलेण्डर हमारे आत्मगौरव की भावना को दर्शाता है। चन्द्रमा हमारी पृथ्वी के चक्कर लगाता है। चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी का एक चक्कर लगा लेने की अवधि को ‘चन्द्र माह’ कहा जाता है ऐसे बारह माह मिलाकर हमारा कैलेण्डर बना है। यह माह है-चैत्र, वैशाख, ज्यैष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भादों, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीष, पौष, माघ और फाल्गुन। प्रति तीसरे वर्ष एक माह की गिनती दोबारा कर, हम पृथ्वी द्वारा सूर्य का चक्कर लगा लेने की अवधि से भी तालमेल बैठा लेते है।
अंग्रेजी कैलेण्डर के मार्च-अप्रैल में चैत्र माह पड़ता है। यह माह अग्न्याशय (पैनक्रियाज) नामक ग्रन्थि को विशेष रूप से प्रभावित करता है। इसी ग्रन्थि में ’इंसुलिन’ नामक हारमोन बनता है। यह हारमोन खाद्य पदार्थों के शर्करा अंश को ऊर्जा और सजगता में परिवर्तित करता है।चैत्र माह (मार्च-अप्रैल) में अग्न्याशय ग्रन्थि निष्क्रिय होकर विश्राम अवस्था में रहती है। अतः गन्ना, गुड़, शक्कर, आदि अति मीठे पदार्थो का विधिवत् पाचन नहीं हो पाता। जो व्यक्ति हठवश या अज्ञानवश, इस माह में मीठी वस्तुओं का प्रयोग अति कम या बन्द नहीं करता, वह आगे चलकर, मधुमेह नामक प्राणघाती रोग का शिकार हो जाता है। बाकी के महीनों में भोजन के बाद एक डली गुड़ खाना स्वास्थ तथा पाचन-क्रिया के लिए ज्यादती होता है।
वैशाख माह (अप्रैल-मई)-में ग्रीष्म ऋतु तीव्रता ग्रहण करती है। शरीर में एकत्रित चर्बी इन्हीं दिनों पिघलती है। अतःतैलीय 
पदार्थ, यहां तक कि तिल, मूगंफली आदि भी खाना शरीर के साथ ज्यादती होता है।
ज्येष्ठ माह (मई-जून)- भीषण गरमी की तपन वाला होता है। इस माह में घी, मलाई, मक्खन, आदि  स्निग्ध, पदार्थ वर्जित हैं। यहां तक कि सिर व शरीर पर तेल-मालिश करना भी मना किया गया है।
    बेल नामक फल गरमी में पकता है। इसका शर्बत पीना शरीर को शीतलता प्रदान करता है, परन्तु आषाढ़ मास (जून-जुलाई) में इस फल के उपयोग  का शरीर पर घातक प्रभाव होता है।
श्रावण (जुलाई-अगस्त) माह में अच्छी वर्षा होती है। गरम और गीली जलवायु के करण कीट-पतंगों का प्रजनन तीव्रता से होता है। अनेक अदृश्य कीटाणु पŸाों फलों और सब्जियों में ही शरण लेते हैं। अतः इस महीने में पŸोदार व हरी सब्जियों का उपयोग कदापि न करें, अन्यथा रक्त-विषाक्तता तथा चर्म रोगों से बचाव असम्भव होगा ।
भादों माह (अगस्त-सितम्बर) में छाछ या दही को न लें। दही भी केवल बारह घण्टे तक जमाया हुआ ही उपयोग करें।
आश्विन    माह (अक्टुबर- नवम्बर) धूप-छांव वाला होता है। इस माह अग्नाशय ग्रन्थि के जागने की स्थिति बनती है करेला और मैथी में इंसुलिन हारमोन्स के तत्व होते हैं। अतः इस माह इन्हें न खायें।
कार्तिक माह (अक्टुबर-नवम्बर) शीत ऋतु के आगमन का सन्देश लाता है। वर्षा ऋतु में मन्द हुई पाचन-क्रिया का जागरण होता है। अतः दही के उपयोग से पाचन-क्रिया और पाचक रसों का हानि न पहुंचायें।
मार्गशीष (नवम्बर-दिसम्बर) माह में आंवला और जीरा का उपयोग न करें। कच्चा आंवला विशेष रूप से हानिकर होता है। अन्य महीनों में यही आंवला ‘अमृतफल’ के समान लाभदायी हो जाता है। जीरा पिŸारस को शान्त व निष्प्रभावी बनाता है, जबकि इस मौसम में पाचकाग्नि पूरी शक्ति में होती है। 
पौष और माघ (दिसम्बर- जनवरी- फरवरी) भरपूर ठण्ड के महीेने हैं। धनिया व मिश्री शीतल प्रभाव रखते हैं। अतः इस दौरान इनका उपयोग न करें। हिन्दी का अन्तिम महीना फाल्गुन (फरवरी-मार्च) है। यह वसन्त ऋतु की बहार का है। इन्हीं दिनों चना खेतों में फलता है चने की भाजी, चना या हरा चना इस माह में कदापि न खायें। बेसन से बनी वस्तुएं भी न खायें, अन्यथा आंव, दस्त, मुंह में छाले आदि रोग हो सकते हैं।
जो व्यक्ति इन बारह महीनों में वर्जित वस्तुओं का त्याग करेगा, सावधानी और सजगता का परिचय देगा, उसके घर में वैद्य-डाॅक्टर के प्रवेश की आवश्यकता नहीं पडे़गी। 
अपनी रूची, प्रकृति और अभ्यास के अनुसार उŸाम खाद्य पदार्थो से आधा पेट ही भरें। शेष आधे पेट का चैथाई भाग वायु के लिए खाली रखें। ऐसा करने पर आप कभी बीमार नहीं पडे़ंगे।  


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