Posted on 04-Dec-2015 02:49 PM
हींग का उपयोग विशेषतः दाल-साग को बघारने में होता है। इसीलिए इसे ’बघारनी’ नाम दिया गया है। इस प्रकार हींग हमारी दैनिक उपयोग की वस्तु है। अरुचि, अफरा, उदावर्त, पेट-रोग आदि में हींग उपयोगी है। उपरांत यह नारु जैसे अनेक रोगों में असरकारक औषधि के रूप में भी उपयोगी है। भारत में हींग का खूब उपयोग होता है। यह फेरुला-फोइटिडा ;थ्मतनसं.थ्वमजपकंद्ध नामक पौधे का चिकना रस है। ये पौधे दो से चार फुट ऊँचे होते हैं। ये पौधे ईरान, अफगानिस्तान, तुर्कस्तान, बलूचिस्तान, काबुल और खुरासान के पहाड़ी इलाकों में होते हैं। वहाँ से हींग पंजाब तथा मुंबई आती है: हींग दो प्रकार की होती है- बाल्हाक और रामठ।
यद्यपि बाजार में अनेक प्रकार की हींग देखने को मिलती है। हिमालय की ऊँची पहाडि़याँ हींग की बुवाई करनेलायक है। बसंत ऋतु में हींग इकट्ठी की जाती है। इस ऋतु में वृक्ष की शाखाएँ बढ़ने लगती हैं तब स्थानीय लोग वृक्ष के मूल के इर्द-गिर्द की जमीन को खोदकर मूल का भाग खुला कर देते हैं। फिर उन पर चीरे लगाकर तथा छेदकर उसका रस इकट्ठा किया जाता है और उसे चमड़ें की थैलियों में भरा जाता है। यह रस सुखने पर हींग बनती है। अच्छी उत्तम प्रकार की हींग में से तीव्र गंध आती है। गंध की तीव्रता के आधार पर ही हींग की कीमत आँकी जाती है।
उत्तम-श्रेष्ठ हींग को ’हीरा हींग’ कहते हैं। यह हींग चमकदार, तीव्र, सुगंधयुक्त और लालिमा लिये हुए पीले रंग की होती है। जलाने पर यह कपूर की तरह जलती है और इसमें से उत्तम सुगंधित धुआँ निकलता है। इसका स्वाद तीखा, कसैला और कड़वा लगता है। ऊष्णता में यह कस्तूरी से जरा भी कम नहीं है। शुद्ध हींग को पानी मंे घोलने पर पानी दूध जैसा सफेद हो जाता है। यदि हींग मिलावटवाली होगी तो पानी के नीचे जम जाएगी। हींग की एक हल्की किस्म है काली हींग। इसमें स्वाद और सुगंध नाम मात्र की होती है तथा यह दुर्गंधयुक्त होती है। यह काले वृक्ष में से बनती है, अतः ’काली हींग’ कहलाती है। यह हींग अपने कृमिनाशक गुण के कारण बाग-बगीचों में छिड़कने और जानवरों के लिए उपयोग में आती है।
औषधि के लिए हीरा हींग का ही उपयोग करना चाहिए। भारत में एवं अन्य देशो में हींग का उपयोग प्रत्येक घर में मसाले के रूप में दाल-साग, बड़ी-पापड़ आदि में स्वाद और सुगंध लाने के लिए होता है। इससे भोजन सुपाच्य , वायुनाशक तथा खाने में लिज्जतदार बनता है। अचार बनाने में भी हींग का उपयोग होता है। अधिकतर लोग हींग का स्वाद पसंद करते हैं। आयुर्वेद में प्राचीन काल से हींग का उपयोग होता है। अनेक गोलियों तथा चूर्णों में इसे मुख्य औषधि माना गया है। अपच और वायु पर इसका प्रयोग निर्भयतापूर्वक किया जाता है। एलोपेथी मंे भी अर्क, वटी और चूर्ण के रूप में अनेक रोगों में इसका उपयोग होता है। औषधि के तौर पर या खाने के लिए उपयोग करने से पूर्व हींग को घी में सेंक-तलकर, शुद्ध कर दी जाती है।
औषधि के रूप में तो कच्ची हींग का ही उपयोग करना चाहिए। शीघ्र लाभ प्राप्त करने के लिए हींग को थोड़े गर्म पानी में खरल करके पिलाया जाता है। हींग की मात्रा दो से आठ रत्ती की है। घी में सेंकी हुई हींग की मात्रा छह से बारह रत्ती की है। हींग गर्म, पाचक, रुचि-उत्पादक, तीक्ष्ण एवं वायु, कफ, शूल, गुल्म, अफरा और कृमि को नष्ट करती है। यह पित्त को बढ़ाती है।