Posted on 20-May-2016 04:43 PM
हानिकारक दुर्व्यसनों को ठंडी आग कहा जाता है। गरम आग में जलकर भस्म हो जाने में देर नहीं लगती, पर पानी में डूब मरने से भी दुष्परिणाम वैसा ही भयंकर दृश्य रोमाचंकारी लगता है और दर्शकों की आँखों में काफी देर तक दहलाने वाला दृश्य खड़ा किए रहता है। जबकि पानी में किसी के डूबने का समाचार सुनकर जरा-सी ही प्रतिक्रिया होती है। इन पर भी दुःखद परिणीति दोनों को ही एक जैसी होती है। जिसका प्राण गया, उस बिछोह का जिन पर प्रभाव पड़ा वे दोनों ही स्थितियों समान रूप से कष्ट सहते हैं।
दुर्व्यसनों को ठंडी आग जैसा ही कहा गया है क्यांकि वे देर-सबेर में उतनी ही हानि पहुँचाते हैं, जितने की अग्निकांड, आक्रमण, प्राणहरण जैसे तत्काल विनाश दृश्य प्रस्तुत करने वाले संकट। कुल्हाड़ी से किसी मजबूत शहतीर को कुछ ही देर में काटकर धराशायी किया जाता, इसी कार्य को उसके भीतर घुसा हुआ धुन, थोड़ा अधिक समय लेकर पूरा करता है। खोखला हो जाने पर शहतीर बिना कुल्हाड़ी की चोट सहे ही जमीन पर गिरता और सड़े-गले ईंधन की तरह प्रयुक्त होता है। किसी को गोली से मार देना और रक्त में विष का प्रवेश कर देने पर धीमी मौत का उपक्रम करना, विवेचकों के लिए हलके-भारी हो सकते हैं, पर दोनों ही परिस्थितियों में रक्तभोगी को प्रायः समान दुष्परिणाम ही सहन करना पड़ता है।
दुर्व्यसनों में नशेबाजी, चटोरापन, जुआ, व्यभिचार, आवारागर्दी आदि की चर्चा आमतौर से होती रहती हैं। उनकी हानियाँ भी समझी-समझाई जाती हैं, एक दुर्व्यसनों का सरताज ऐसा है जिसकी ओर से चित्त और आँखें बंद किए रहते है और दोनों ही उसके कारण अपार हानि सहते हैं।
इस दुर्व्यसन का नाम है -आलस्य। आलस्य का अर्थ है, श्रम से जी चुराना। इस कारण सामर्थ्य और साधन, अवर रहते हुए भी मनुष्य उन सफलताओं से वंचित रह जाता है, जो समय और श्रम का सुनियोजन करने पर सहज ही उपलब्ध हो सकती थी। ’पिछड़े लोगों में से अधिकांश का दुर्गुण, आलस्य ही पाया जाता है। आलस्य और दारिद्रय को सहोदर भाई माना गया है, दोनों अभिन्न्ज्ञ मित्र हैं। एक के बिना दूसरे को चैन नहीं पड़ता। आलसी समय गँवाता रहता है। साथ ही उन उपलब्धियों से भी हाथ धोता रहता है, जों उतनी देर परिश्रमरत रहने पर सहज ही हस्तगत हो सकती थी।’
समय ही जीवन है। भगवान इसी रूप में मनुष्य को अभीष्ट वैभव, सौभाग्य का अवसर प्रदान करता है। जिसने अपने समय का सुनियोजित उपयोग कर लिया, समझा जा सकता है कि दैवी अनुग्रह का भरपूर लाभ उठा लिया। ऐसे अनेक लोग हुए हैं जो कि कम समय जीवित रहे, किंतु उस अवधि का समुचित सदुपयोग करके इतना लाभ उठा सके, जितना कि शतायु लोगों को भी हस्तगत नहीं होता। मनोयोग समेत किया गया परिश्रम प्रगति और संपत्ति का ऐसा सुयोग उपस्थित करता है, जिसे सामान्य जन दैवी-वरदान या सौभाग्य चमत्कार ही कह सकते हैं।
सामाजिक या राष्ट्रीय प्रगति का स्वरूप कुछ भी क्यों न हो, उसके मूल कारण उसके घटक सदस्यों की कर्मठता ही काम कर रही होती है। जहाँ लोगों पर आलस्य प्रमाद चढ़ा होगा समझना चाहिए कि वहाँ पक्षाघात जैसी विपत्ति चढ़ी होगी। विकलांगों अपंगों के दुर्भाग्य पर आँसू बहाए जाते हैं, पर सच्चे अर्थों में अभागे वो हैं, जिसने आलस्य का दुर्व्यसन अपनाया। उपयोगी, योजनाबद्ध परिश्रम से जी न चुराकर समय का सदुपयोग करना सीखिए।