बूंद बूंद से घड़ा भरता है

Posted on 09-Jun-2016 11:25 AM




वर्षा का ज्यादातर पानी सतह की सामान्य ढालों से होता हुआ नदियों से मिल कर सागर में होम हो जाता है। वर्षा का यह बहुमूल्य शुद्ध जल यदि भूमि के भीतर पहुँच सकता तो बैंकिंग प्रणाली की तरह कारगर होता यानी कि जमा पर ब्याज का लाभ भी प्राप्त किया जा सकता था। भूमिगत जल मानसून के बाद भी मृदा की नमी बनाये रखते हुए अपना व्याज निरंतर अदा करता रहता है साथ ही कुएँ और नलकूप आदि साधनों द्वारा खोती के काम आता है और जन सामान्य की प्यास भी बुझाता रहता है। इसे प्राकृतिक जल संचयन स्टोरेज टैंक भी कहा जा सकता है। समस्या गंभीर इसलिये हो जाती है क्यों कि मृदा (धरती की ऊपरी सतह) अपने भौतिक रासायनिक गुणों के अनुरूप ही सतही जल अथवा वर्षा जल को ग्रहण कर सकती है। यानी कि तेजी से बहते हुए पानी का थोड़ा सा हिस्सा ही जमीन के भीतर पहुँच पाता है, जबकि ठहरे हुए पानी का काफी बड़ा हिस्सा धीरे धीरे भूमिगत जलाशयों तक पहुँच जाता है। जब जनसंख्या बढ रही है और प्रकृति अपने सीमित संसाधनों के बावजूद स्वयं को मिटा कर अपनी सबसे बुद्धिमान रचना मनुष्य को बचाने मे लगी है तो कहीं इस बुद्धियुक्त प्राणी का भी कर्तव्य है कि वह स्वयं के संरक्षण के लिये उठ खडा हो और इसके लिये अपने ही भूमिगत जल संसाधनों को बढ़ाने में प्रकृति से सहयोग करे। ऐसा भी नहीं है कि प्राकृतिक-वर्षा-जल को भूमिगत स्रोतों तक पहुँचाना कठिन कार्य है। निजी प्रयासों से ले कर सामूहिक प्रयत्नों से इसको संभव बनाया जा सकता है। चूंकि खेत प्यासे नहीं रह सकते, मवेशी प्यासे नहीं रह सकते, आदमी प्यासा नहीं रह सकता और कारखाने भी चलने ही हैं तो भूमिगत जल को बाहर निकालने की आवश्यक निरंतर बनी रहती है लेकिन जिस स्रोत से दोहन किया जा रहा है उस स्त्रोत में वापस जल का उसी मात्रा में पहुँचना भी तो आवश्यक है। उपलब्धता से अधिक उपयोग की स्थिति में परिणाम गंभीर हो सकते हैं। कई बार इन स्रोतों को, जिन्हें तकनीकी भाषा में “एक्वीफर”या भूमिगत जलाशय कहा जाता है, का आवश्यकता से अधिक दोहन करने पर या तो ये पूरी तरह समाप्त हो जाते हैं या इनमें जल संग्रह क्षमता बहुत ही कम हो जाती है। इतना ही नहीं वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में अनगिनत फैक्ट्रियों के चलते उनके प्रदूषित रसायनों को पृथ्वी पर बहा दिए जाने, विभिन्न कारणों से विभिन्न रसायनों और अस्वास्थ्यकर पदार्थों को जमीन से दफना दिए जाने तथा सफाई व संक्रमण से रोकथाम के लिए व कीटनाशकों के निरंतर प्रयोग से भूमिगत जलाशयों के प्रदूषण की समस्या निरंतर बढ़ती जा रही है। प्रकृति का सर्वोत्तम, समर्थ एवं बुद्धिमान सदस्य होने की हैसियत से हमें निजी प्रयासों से भूमिगत जल के संरक्षण का संकल्प लेना चाहिए। इसके लिए हर व्यक्ति अपने स्तर पर कम से कम यह तो कर ही सकता है कि- वर्षाकाल में मकानों की छत पर गिरे जल को जमीन में पहुँचाने की व्यवस्था बना दी जाए। आँगन को कच्चा रखने की पुरानी परंपराओं का अनुपालन किया जाए। कम से कम एक वृक्ष लगाया जाए। पानी की बरबादी को रोका जाए जैसे कि उपयोग के बाद नल को बंद कर दिया जाए। सरकारी प्रयास और वैज्ञानिक शोधों से इस समस्या का आंशिक समाधान ही निकलेगा किंतु यदि जन जन इस समझ को विकसित कर ले तो बूंद बूंद से घड़ा भरते देर नहीं।


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