Posted on 01-May-2015 03:36 PM
रक्त शुद्ध बर्हिश्र्वायु के पान के लिए सारे शरीर से सिमटकर हृदय में आता और वहां से फंुुफुसों में जाता हैं। शुद्ध होकर लौटता हुआ वह पुनः हृदय में आता है। हृदय इसे सर्वांग में पहुंचा देता है, वहां से पुनः हृदय में आता है। इस प्रकार के चक्र जीवन पर्यन्त निरन्तर हर पल चलते ही रहते है।
रक्तानुधावन क्रिया, हृदय के संकोचात्मक एवं विकासात्मक क्रिया द्वारा होती है। संकोच के समय एक ओर तो शुद्धरक्त और तदन्तर्गत शुद्ध वायु धमनियांे में जाती है, दूसरी ओर रक्त और अशुद्ध वायु शुद्ध्यार्थ जाता है। हृदय के संकोचवश रक्तावेग से धमनियों में स्फुरण होता है। हृदय विकास होने पर एक ओर तो शुद्धध्यार्थ से रक्त और उसमें मिश्रित शुद्धवायु हृदय में प्रविष्ट होती है। दूसरी ओर सारे शरीर का रक्त और उसके अन्तर्गत दूषित वायु हृदय में आती है।