Posted on 07-May-2015 02:35 PM
मानव धर्म वह है, जो प्रत्येक प्राणी के आत्म-विकास में सहायक हो। एक मास तक निरन्तर उपवास करने वाले कोई एक-दो व्यक्ति होते हैं। समाधि लेने वाला कोई विरला भी होता है, अतः यह जन-जन का धर्म नहीं हो सकता। अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह आदि महाव्रतों का पालन समूचा संसार नहीं कर सकता, लेकिन कुछ छोटी-छोटी बातों पर भी ध्यान दिया जाये तो मानव होने का अर्थ सार्थक हो सकता है। किसी को नहीं सताना। किसी के अधिकारों में खलल पैदा न करना और असत्य नहीं बोलना। इन बातों को स्वीकार किए बिना कोई भी व्यक्ति मानवीय मूल्यों का पालन नहीं कर सकता। व्याख्या - पद्धति में अंतर जरूर हो सकता हैं, पर इन्हीं बातों को प्रकारांतर से सब धर्म स्वीकार करते आ रहे हैं।
मानव धर्म वहां साकार होता है, जहां संप्रदाय की जंजीरों को तोड़कर मानव मात्र के लिए विकास का पथ प्रशस्त किया जाता है। समष्टि के कल्याण की कामना ही मानव धर्म है। मानव बुराईयों से मुक्त होकर स्वस्थ समाज की संरचना करें। जिन लोगों ने मानव धर्म को समझने का प्रयास किया है वे इसके उपयोग को अच्छी तरह से समझ रहे हैं। आज हम धर्म को केवल उपासना या कर्मकाण्डों तक सीमित रखेगें, तो उसका मौलिक स्वरूप सामने नहीं आ सकेगा। धर्म, कर्मकाण्डों से भी अधिक आचरण का तत्व हैं। इसलिए सही अर्थों में मानव धर्म परस्पर सहयोग सद्भाव व दुःखीजन की सेवा ही हो सकता है।
मानव केवल एक भौतिक इकाई नहीं है वह एक प्राणवान सत्ता है। दृश्यमान मानव से परे उसका एक अन्य अस्तित्व है जो उसे क्रियाशील बनाता है। यह उसका आत्मिक स्वरूप है। प्रायः हमारा पूरा जीवन भौतिक अस्तित्व को जानने और परखने में व्यतीत हो जाता है। हम उस वास्तविक सत्ता का साक्षात्कार नहीं करते, जो भौतिक अस्तित्व को जानने और परखने में व्यतीत हो जाता है। यदि हम आत्म तत्व में अपने होने का कारण खोजते हैं तो सारे भेद समाप्त हो जाते हैं।