सम्पादकीय

Posted on 30-Apr-2015 02:18 PM




रामायण में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- 
                        मोह सकल व्याधिन कर मूला।
मन के रोगी की दशा तन के रोगी से अधिक कष्टपूर्ण होती है। ईष्र्या, द्वेष, शोक, भय, क्रोध तथा अहंकार आदि विकारों को मानस रोग कहा गया है। सर्वप्रथम हम क्रोध के बारे में बात करते हंै। किसी इच्छा या कामना के पूर्ण न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। अज्ञान व अहंकार इसके मुख्य कारण हैं। मूर्खता से क्रोध उत्पन्न होकर पश्चाताप पर समाप्त होता है। विचारवान व्यक्ति कभी क्रोध नहीं करता और क्रोधी व्यक्ति कभी विचार नहीं करता।
क्रोध से विवेक नष्ट हो जाता है और बिना विवेक के प्रत्येक कार्य अशुभ ही होगा। क्रोध से देह में पित्त उत्पन्न होता है। अपच, भूख का मरना, अनिद्रा रोग, मानसिक तनाव तथा कण्ठ, अन्न नलिका, पेट में जलन होती है। खट्टी तीखी  डकारंे आती है। क्रोध से सिर गर्म हो जाता है। शरीर काँपने लगता है। दिल का दौरा भी पड़ सकता है।
क्रोध से बिगड़े काम तमाम
क्रोध से अपना तन-मन जलता, क्रोध नाश का नाम।
क्रोध रक्त की गति बढ़ाए, और विवेक खो जाता।
क्रोध लड़ाई झगड़ा करता, नहीं रहता कुछ ध्यान।।
    ईष्र्या, द्वेष और जलन को जन्म देती है। ऐसा व्यक्ति अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहता है। इससे अपने ही शरीर की हानि होती है।
    भय व चिन्ता - अनिष्ट की आशंका ही चिन्ता व भय का कारण है। शरीर आलस्य व निराशा से भर जाता है तथा अकर्मण्य हो जाता है।
    अहंकार - अहंकारी सदा अपने को ही श्रेष्ठ समझता है। ऐसे व्यक्ति की लोकप्रियता नष्ट हो जाती है। अहंकारी तो अपने ‘मैं’ में ही पागल हो जाता है। ये लोग भी रक्तचाप, अनिद्रा आदि के शिकार रहते हंै। महान् व्यक्ति अहंकारी नहीं होते और अहंकारी व्यक्ति कभी महान् नहीं होते।
    जन, धन, धरती, महल सब, अहंकार के मूल हैं।
    पवन प्राण उड़ जायेगा, अन्त धूल की धूल।।
    चार दिनों की जिन्दगी, रोग द्वेष मत बाँध।
काया हाण्डी काठ की, इसमें विष मत रांध।।
    अकड़कर के जो भी चला, वह निश्चित मिट जाय।
    झुकना जिसको आ गया, वही अमर हो जाय।।


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