Posted on 02-May-2015 11:40 AM
गंगा न किसी की जाति देखती है, न धर्म और न ही लिंग। महाकवि कालिदास के बाद संस्कृत साहित्य में अग्रगण्य कवि पंडितराज जगन्नाथ हैं। सत्रहवीं शताब्दी के चूडांत मनीषी पंडितराज जगन्नाथ की एक कथा प्रसिद्ध है कि जगन्नाथ ने मुस्लिम कन्या से विवाह किया। विवाह करके जब जगन्नाथ काशीस्थित अपने घर लौटे तो उनकी जाति के लोगों ने उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया। जगन्नाथ ने पंडितों से कहा कि संसार मे सबसे शुद्ध व पवित्र माता गंगा हैं और यदि वे उनके शुद्ध होने की घोषणा कर दे तो सभी लोगों को मुझे अंगीकार करना होगा। तब जगन्नाथ अपनी मुस्लिम पत्नी के साथ गंगा के किनारे बैठकर अपनी शुद्धता सिद्ध करने लगे। जगन्नाथ संस्कृत में एक-एक श्लोक बनाकर माता गंगा को चढ़ाते जाते और गंगा प्रत्येक श्लोक पर एक-एक सीढ़ी ऊपर आती जाती। अंततः 52 सीढि़यां ऊपर आकर पतितपावनी गंगा ने पत्नी के साथ पंडितराज जगन्नाथ को छुआ तो सारी काशी को रोमांचपूर्ण आश्चर्य हुआ। पंडितराज जगन्नाथ का 52 श्लोकों का वह स्तोत्र आज भी ‘गंगालहरी’ के नाम से प्रसिद्ध है, जिसका गान गंगा के घाटों पर आज भी होता है।
गंगा जन-जन को तारती है। सात शताब्दियों पहले गंगा के किनारे काशी में स्वामी रामानंद के शिष्य महात्मा कबीर और रैदास हुए। कबीर ने भक्ति की गंगा दिखा डाली। हकीकत में गंगा हमारी संस्कृति की उद्भव है और परिणीति भी। सुरधुनी माता गंगा वत्सला है। वह कभी बूढ़ी नहीं होती। वह हर रोज सर्जनशील है।
गंगा का पानी हमारे पीने का नहीं, जीने का सहारा है। यह अवश्य कष्टप्रद है कि जैसे नारी सहधर्मचारिणी न रहकर केवल शयनीय मात्र होती जा रही है वैसे ही गंगा भी चैतन्य की राशि न रहकर, अनुष्ठान का तीर्थ न रहकर मात्र सुविधा और पर्यटन केंद्र होती जा रही है। मनुष्य के भविष्य को बचाने के लिए हमें गंगा के साथ भावगंगा का अवतरण करना होगा। यही सच्चे मायने में गंगास्नान है।