Posted on 25-Jul-2015 02:43 PM
शास्त्रों में गुरु के अर्थ के अंधकार को दूर करके ज्ञान का प्रकाश देने वाला कहा गया है, गुरु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले होते हैं, गुरु की भक्ति में कई श्लोक रचे गये हैं जो गुरु की सार्थकता को व्यक्त करने में सहायक होते हैं, गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार संभव हो पाता है और गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं हो पाता।
भारत में गुरु पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है, प्राचीन काल से चली आ रही यह परम्परा हमारे भीतर गुरु के महत्व को परिलक्षित करती है, पहले विद्यार्थी आश्रम में निवास करके गुरु से शिक्षा ग्रहण करते थे तथा गुरु के समक्ष अपना समस्त बलिदान करने की भावना भी रखते थे, तभी तो एकलव्य जैसे शिष्य का उदाहरण गुरु के प्रति आदर भाव एवं अगाध श्रद्धा का प्रतीक बना जिने गुरु को अपना अँगुठा देने में क्षण भर की भी देर नहीं की।
गुरु पूर्णिमा के चँद्रमा की तरह उज्जवल और प्रकाशमान होते हैं उनके तेज के समक्ष तो ईश्वर भी नतमस्तक हुए बिना नहीं रह पाते गुरु पूर्णिमा का स्वरूप बनकर आषाढ़ रूपी शिष्य के अंधकार को दूर करने का प्रयास करता है, शिष्य अंधेरे रूपी बादलों से घिरा होता है जिसमें पूर्णिमा रूपी गुरू प्रकाश का विस्तार करता है जिस प्रकार आषाढ़ का मौसम बादलों से घिरा होता है उसमें गुरु अपने ज्ञान रूपी पुंज की चमक से सार्थकता से पूर्ण ज्ञान का का आगमन होता है।
गुरु आत्मा - परमात्मा के मध्य का संबंध होता है गुरू से जुड़कर ही जीव अपनी जिज्ञासाओं को समाप्त करने में सक्षम होता है तथा उसका साक्षात्कार प्रभु से होता है, हम तो साध्य हैं किन्तु गुरु वह शक्ति है जो हमारे भीतर भक्ति के भाव को आलौकिक करके उसमें शक्ति के संचार का अर्थ अनुभव कराती है और ईश्वर से हमारा मिलन संभव हो पात है, परमात्मा को देख पाना गुरू के द्वारा संभव हो पाता है, इसीलिए तो कहा है, “गुरु गोविन्ददोऊ खड़े काके लागू पाय, बलिहारी गुरु आपके जिन गोविन्द दियो बताय।”