Posted on 22-Jul-2015 02:47 PM
एक महात्मा जी थे-बड़े भले-बड़े अच्छे। नाम के ही साधु नहीं, हृदय से भी भक्त थे। आमतौर पर उनके श्री मुख से निकलता था -”जगदीश जगत का भला ही करता हैं।“ एक दिन एक मैय्या दुःखी अवस्था में तो आयी ही- उन्हें महात्मा जी पर गुस्सा भी था। शोक पूर्ण अवस्था में वह बोली-”महाराज आपकी सब बातें तो मैं मान सकती हूँ-पर बताइए, मेरी बहन के इकलौते तीस वर्षीय बच्चे को भगवान ने उठा लिया, क्या भला किया है - इसने ? महाराज श्री विचार मग्न हुए, बोले,” मांई, मैं तुम्हारी बहन का दुःख समझता हूँ। ज्ञान से यों समझो कि किसी बड़े सेठ की पच्चीस शहरों में दुकानें हैं- ब्रांचें हैं। अब सेेठ का आदेश उदयपुर की ब्रांच में आया कि 100 थान कपड़े के जोधपुर ब्रांच में भेज दो- उदयपुर का ब्रांच मैनेजर यदि स्वामी भक्त हुआ तो क्या करेगा वह ? तुरन्त रवाना ही करके उत्तर देगा न, कि जी, साहब भेज दिए। और दूसरी तरफ, यदि मैनेजर ने सोचा कि सेठ जी तो कुछ समझते ही नहीं, यह कपड़ा तो मेरे अत्यन्त प्रिय है- इसे न भेजू! बोलो, मांई-पहले वाला मैनेजर अच्छा या दूसरा ? दोनों में से किससे ज्यादा सेठ राजी रहेगा।
महात्माजी ने आगे व्याख्या की ”ठीक इसी तरह हम सभी भगवान के ब्रांच मैनेजर ही तो है न“ ? तो आपकी बहन को परमात्मा ने बेटा सौंपा अब दूसरी जगह उसकी जरूरत पड़ गई - सो भगवान ने ट्रांसफर कर दिया।
ज्ञानी काटे ज्ञान से, मूरख काटे रोय।
इतने दयालु है परमात्मा कि हमें सर्व श्रेष्ठ मनुष्य योनि दी, प्रतिभा, बुद्धि एवं अवसर सभी दिये। सन्तवाणी का श्रवण भी करने को मौका दिया। अच्छी लगती है न ये पंक्तियाँ -
‘‘मुख में हो रामनाम, राम सेवा हाथ मे।
तूं अकेला नाहीं प्यारे, राम तेरे साथ में।।’’
यह मनड़ा कहीं न कहीं तो लगेगा ही ? तो क्यों न इसे प्रभु स्मरण में लगावें एवं अपने को मालिक न समझकर मैनेजर समझे, और यथा साध्य ”परहितरत् रहते हुए भगवद् सेवा के भाव से“ सभी कार्य करते रहें-दुःखी-गरीब, भाई-बहिनों के साथ विशेष प्रेम और सरलता का बर्ताव करें। ”मानव सेवा ही माधव सेवा है“ - सावधानी ही साधना है, नर ही नारायण है- इसका रखें सतत् ध्यान।