सम्पादकीय 13 मई

Posted on 13-May-2015 12:31 PM




बन्धुवर, आप इन अनजान रोगियों के लिए दवाइयों का इतना खर्च कर रहे है ? इसकी प्रेरणा कहाँ से मिली आपको ?
पराये दुःख से द्रवित होने वाले उन सज्जन ने, एक क्षण मेरी तरफ देखा, आँख डब डबा आई-उनकी। मेरे कन्धे पर हाथ रखा, और अतीत की यादों में खो गये। धीरे से बोले मेरा जीवन इन्हीं की धरोहर है। नहीं तो मैं आपको यहाँ दिखाई नहीं देता। आगे की मेरी जिज्ञासा को देखते हुए उन्होंने कहा-यह बात तीन वर्ष पूर्व की है। मैं जयपुर से बस द्वारा बम्बई जा रहा था, रास्तें मेें कब, कहाँ, कैसे क्या हुआ ? मुझे नहीं मालूम। मुझे तो होश आया तब में एस. एम. एस हाॅस्पीटल जयपुर के सर्जिकल वार्ड में एक बेड पर था। मुझे बताया गया कि तीन दिन पूर्व एक बस के एक्सीडेंट में गंभीर घायल होकर मैं संज्ञा शून्य हो गया था। यहाँ लाॅकर भर्ती कराने से अब तक मुझ पर लगभग एक हजार पाँच सौ रूपयों की दवाइयों का खर्च एक अपरिचित सज्जन ने किया, और लगातार मेरे सिरहाने बैठ कर सेवा के साथ -साथ भगवान से मेरे लिए दुआ की। कहते-कहते उन भाई साहब के पूरे चेहरे पर आँसू बहने लगे। स्वयं को संयत कर बोले - बहुत ढूँढा पर मेरे जीवन दाता उन परोपकारी महानुभाव को नहीं खोज पाया-मैं।
    उन सज्जन ने इस बारे में अन्तिम वाक्य कहा। उस दिन से मैं बराबर हर अपरिचित बीमार में अपने उन जीवन दाता को ढँूढ रहा हूूँ। मैं तो खोजूंगा ही, मेरे पुत्र पोत्र भी ऐसा करते रहेंगे-प्रभू कृपा से। मुझे यह विश्वास है, और वह सज्जन बढ़ गये- दूसरे बीमार की सेवा करने।


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