Posted on 05-Sep-2015 03:19 PM
अपने यहाँ चार पुरुषार्थ गिनाए गए हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारों का निर्वचन ईशावास्योपनिषद के प्रथम श्लोक मंे है। ईश शब्द ’ईट’ धातु से बना हुआ है। मतलब यह है कि जो सभी को अनुशासित करता है या जिसका आधिपत्य सब पर है, वही ईश्वर है। उसे न मानना स्वयं को भी झुठलाना है। जो अपने को नहीं जानता वही ईश्वर को भी नहीं मानता। ’कर्म करते हुए ही सौ वर्षों तक जीवित रहने की इच्छा रखे’ ईशावास्य उपनिषद का यह मंत्र हम सब जानते हैं। ’ईशावास्यमिंद सर्वम्’, इस मंत्र में तीन पुरुषार्थ के लिए तीन बातें कही गई हैं।
मोक्ष पुरुषार्थ के लिए:
’ईशावास्यमिंद सर्वम्।’
काम पुरुषार्थ के लिए:
’तेन त्यक्तेन भुंजीथाः।’
अर्थ पुरुषार्थ के लिए:
’मागृधः कस्यस्विद् धनम्।।’
और चैथे धर्म नामक पुरुषार्थ के लिए: कुर्वन्नेवीह कर्माणि
कृष्ण कर्म की बात कर रहे हैं और साथ ही यह भी कह रहे हैं - ’सर्वधर्मान परित्यज्य’, सब धर्म अर्थात् पिता, पुत्र, वाला धर्म छोड़कर जितने शारीरिक, सांसारिक या भौतिक, दैविक राग और रोग हैं वे सारी परिधियाँ पार कर, मैं जो सभी का कत्र्ता और भत्र्ता हूँ, उसकी शरण में आ। तब तू सब पापों से मुक्त, परम स्थिति को पा लेगा।