Posted on 01-Aug-2015 03:37 PM
रियासत काल की बात है। एक महारानी को एक दिन नदी-विहार की सुझी। आदेश मिलने की देर थी, तत्परता के साथ उपवन में व्यवस्था की गई। महारानी ने जी भर विहार का आनन्द लिया। दिन ढलने लगा और शीतल हवाएं चली तो महारानी को सर्दी अनुभव हुई, उन्होंने सेविकाओं को अग्नि का प्रबन्ध करने का आदेश दिया। सेविकाओं ने काफी खोज-बीन की लेकिन सूखी लकडि़यां नहीं मिली। उन्होंने महारानी को अपनी असमर्थता बताई। महारानी ने आदेश दिया-’’सामने जो झोंपडि़यां दिख रही है, उन्हीं को ईधन के रूप में काम ले लिया जाए।’’ झोंपडि़यां तोड़़ दी गई और महारानी के लिए आग तापने का प्रबन्ध हो गया।
दूसरे दिन झोंपड़ी वालों ने महाराजा से गुहार की। महाराजा ने गम्भीरता पूर्वक विचार किया। उन्होंने स्वयं को उन गरीबों की जगह रख कर देखा-उनकी वेदना का अनुभव किया। तब निर्णय दिया कि महारानी राजमहल छोड़ कर निकले, हाथ में कटोरा लेकर भिक्षा मांग कर धन एकत्र करें, उस धन से झोंपडि़यों का पुनर्निर्माण कराए: तभी पुनः राजमहल में प्रवेश करें।
अस्तु ! दूसरों की वेदना का अनुभव करने के लिए हमें स्वयं को उसके स्थान पर खड़ा होना पड़ेगा। महापुरुष एक शाश्वत नियम बता गए है-’दूसरों के साथ वही व्यवहार करो, जो तुम्हें अपने लिए पसंद हो’ ऐसे व्यवहार के लिए व्यक्ति को अपना ’स्व’ छोड़ना पड़ेगा। जब हम अपने सोच को इस दिशा में ले जाएंगे, तभी अपने कत्र्तव्य का सही निर्धारण कर पाएंगे।