Posted on 03-Jun-2015 04:58 PM
एक होटल में किशोर वय भोला-भाला और ईमानदार लड़का शीशे का गिलास धो रहा था। संयोग से एक गिलास उसके हाथ से फिसल कर जमीन पर गिर कर टूट गया। मालिक यह देखते ही तमतमाता हुआ उसके पास आया और उसके गालों पर तड़ातड़ तमाचे जड़ दिये। लड़का कुछ बोलता, उससे पहले ही मालिक ने उसका कान उमेठा और धकेलते हुए होटल से बाहर कर दिया। लड़का सुबकता हुआ होटल की देहरी पर बैठ गालों को सहलाता रहा। तभी मालिक को और कुछ टूटने की आवाज सुनाई दी। उसने पीछे मुड़कर देखा। अलमारी से नई प्लेटों का पैकेट उतारते उसका ही बेटा नीचे गिर पड़ा था। मालिक उसके पास दौड़कर गया और लड़के को अपने अंक में ले पूछने लगा बेटा कहीं चोट तो नहीं आई ? प्लेटों का क्या है, कल नई आ जाएंगी। वह सांन्त्वना दे ही रहा था कि नौकर लड़का वहाँ आया और टूटी प्लेटों के टुकड़े इकट्ठे कर कूड़ादान में फेंक होटल का मालिक बन गया और जो मालिक था वह होटल के बाहर रेहड़ी पर धंधा कर रहा था। कहने का तात्पर्य यह कि जैसा हम बोयेंगे, वैसा ही पायेंगे। अपने-पराये में भेद किए बिना जो व्यक्ति अहंकार शून्य होकर धर्म के रास्ते पर चलेगा, वहीं सुख की प्रतिती होगी। व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। उसका सुख-दुःख, आशा-अपेक्षा, सोच-विचार, आहार-विहार और व्यवहार सभी कुछ व्यक्तिगत होते हुए भी समाज से असम्बद्ध नहीं है। वनों के निरंकुश जीवन से निकलने के बाद उसने विकास क्रम के सोपानों की जब से चढ़ाई शुरू की तभी से उसने परस्पर सहयोग और सद्भाव के साथ जीने का मूल मंत्र भी पा लिया। सामाजिक समरसता सभ्यता की पहली शर्त का पहला पड़ाव है। जब पड़ोस से दर्द से बेचैन कोई कराह उठकर कानों तक पहुँचती हो तो कोई हृदयहीन व्यक्ति ही आराम की नींद सो सकता है। पड़ोस में कोई भूख से बेहाल हो तो परोसा गया सुस्वादु भोजन भी फीका पड़ जाता है। सड़क पर फटे हाल किसी दोहरे शरीर को देखकर कलेजा मुंह को आने लगता है। किसी रोगी, निःशक्त और प्रज्ञा चक्षु को जब सहारे की जरूरत हो तो अपने सामने कोई कैसे आराम से बैठा उसे देखता रह सकता है। इन्हीं तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए भारतीय मनीषियों ने ‘सर्वें भवन्तु सुखिनः सर्वेसन्तु निरामयाः’ के मूल मंत्र का प्रसार किया था। महात्मा गांधी ने इसी बात को अपनी सभाओं में इस प्रकार अभिव्यक्ति दी थी, कि जब तक एक भी आँख में आँसू है, मेरे संघर्ष का अंत नहीं हो सकता। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को अपने ही भले की नहीं बल्कि दूसरों के लिए भी त्याग की भावना मन में रखनी चाहिए। और इस त्याग में यदि कुछ दुःख का भी अनुभव होता है तो उसे आन्तरिक सुख मानना चाहिए। ऐसा करने पर हम बाहरी तौर पर दुःख भोगते हुए भी आन्तरिक दृष्टि से सुखी रहेंगे। जो आत्म कल्याण चाहते हैं, इन्हें इसका अनुसरण करना चाहिए। जहाँ भोग को प्रधान माना नहीं कि दुःखों का अम्बार लग जाएगा। जिस व्यक्ति अथवा परिवार और समाज में भोग की बजाय त्याग की भावना प्रधान होती है, वह कभी दुःखी हो ही नहीं सकता।
भारतीय संस्कृति कदापि यह इजाजत नहीं देती कि एक को सुखी बनाने या मौज उड़ाने देने के लिए असंख्य दुःखियों और मजबूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाये। एक दूसरे की फिक्र करने में ही श्रेय है। उन महानुभावों को धन्य है जो रोगियों, दुःखियों, बेसहारा और निःशक्तजन की सेवा के लिए अपने योगदान को लेकर चिन्तन करते ही रहते हैं और यथा योग्य समय और अर्थदान करते हैं। देकर पाने में जो सुख हैं, वह केवल पाने में नहीं है। दूसरों को खिलाकर खाने में जो संतुष्टि है वह अकेले बैठकर खाने में नहीं। जिसने एक बार इस सुख का रस ले लिया, उसे और किसी रसास्वादन की आवश्यकता नहीं है। नारायण सेवा संस्थान के सभी साधकों को भी मैं यही कहता रहता हूँ कि ‘सब धर्मों की एक ही बात, प्यार बढ़ाओ सबके साथ।’
- कैलाश ‘मानव’, संस्थापक-चेयरमैन
नारायण सेवा संस्थान