Posted on 07-Dec-2015 05:03 PM
कोलकाता के एक सेठ जी के मन में आया, पैसा तो खूब है मेरे पास, ऐसी बिल्ंिडग बनाऊं वैसी आसपास कहीं न हो। बिल्ंिडग बनना हुआ प्रारम्भ, मंजिल पर मंजिल चढ़ती गई और भरपूर पैसा खर्च कर बन गया शानदार भवन। जो भी देखता, तारीफ करता सेठ जी से और इससे हुआ यह कि सेठ जी को बिल्डिंग की तारीफ सुनने का लग गया चस्का। एक दिन की बात, एक सन्त महादय पधारे। भोजन बड़े प्रेम से कराया सेठ जी ने। बड़े आदर से सन्त महाराज को बिल्ंिडग में चारों तरफ घुमाया और पूछा -महाराज श्री, मैंने इंजीनियर को अभी छुट्टी नहीं दी है। कोई कसर हो तो बता दे महाराज (अन्तर मन में इच्छा, कि अभी बिल्ंिडग की तारीफ होगी ही)। महाराज श्री धीरे से बोले, सेठ जी -भवन तो अच्छा बना है पर .......।
सेठ जी के ऊपर मानो घड़ों पानी पड़ गया। फिर भी बोले-हाँ महाराज, आप जो कमी हो अवश्य बतावें। सन्त धीरे गंभीर वाणी से बोले -भक्त, सब कुछ अच्छा लगाया तुमने बिल्डिंग में, पर इसमें एक ही कसर रह गई। पहिये तो लगाना भूल ही गये-साथ कैसे ले जाओगे ? सागर जैसी गहराइयों में सेठ जी को डूबता छोड़ कर सन्त तो पधार गये। सेठ जी लक्ष्मी पुत्र तो थे ही, संस्कारी भी थे, हृदय में उथल-पुथल हुई। तुरन्त निर्णय किया व सायंकाल सन्त जहां प्रवचन कर रहे थे, पहुंचे।
ऋषि के चरणों में कुछ कागज रखे। धीरे से बोले, महाराज-मैंने अपना सब कुछ निर्धन, असहाय, बन्धु-बान्धवों को दान कर दिया है। मैं बिल्ंिडग में अब लगा पाया हूँ -पहिये। सदियों की इबादत से बेहतर है वह लम्हा, जो बिताया हमने किसी इंसान की खिदमत में।