Posted on 16-Oct-2015 02:50 PM
वर्षो तक शिष्य गुरू के पास रहेगा, उस क्षण की प्रतिक्षा चलेगीः कब गुरू पुकारे। उस क्षण के लिए धीरज रखेगा, जब गुरू पाएगा योग्य-कि अब गोपनीय तत्व कहे जा सकते है; तब तक गुरू की सेवा टहल करेगा। गायों को चरा लाएगा जंगल में, लकडियाँ काटेगा, घास काट कर ले आयेगा। पानी भरेगा। जो भी चलता है गुरूकुल में, उसमें सहयोगी होगा और प्रतिक्षा करेगा; कब बुला लिया जाय। कथा है कि श्वेतकेतु बहुत दिन तक गुरू के पास रहा। वह जीवन का रहस्य जानना चाहता था; लेकिन शायद अभी तैयारी न थी। वर्षो बीत गयें। बहुत कुछ उससे कहा गया, बहुत कुछ बताया गया, लेकिन परम गोपनीय न कहा गया। वह धीरज से प्रतिक्षा करता रहा। कहानी बड़ी मधुर है। कहानी कहती है कि गुरू के गृह में जो हवन की अग्नि जलती थी, उस तक को दया आने लगी। अग्नि को दया! गुरू न पसीजा, लेकिन शिष्य के धैर्य को देखकर-जिस अग्नि को रोज-रोज वह जलाता था, ईंधन डालता था, हवन में गुरू की सहायता करता था-वह जो यज्ञ की वेदी थी, उसकी अग्नि को-जो सतत जलती रहती थी, उसको भी देख-देख कर करूणा आने लगी। बहुत हो गया। प्रतिक्षा की भी एक सीमा है। गुरू बाहर गया था, तो कहते है, अग्नि ने श्वेतकेतु को कहा कि ‘गुरू कठोर है, और अब तू राजी हो गया है, तैयार हो गया है, फिर भी नही कह रहा है; तो मैं ही तुझे कहे देती हूँ।’ कहते है श्वेतकेतु ने कहा, ‘धन्यवाद-तेरी कृपा के लिए, तेरी करूणा के लिए। लेकिन प्रतिक्षा तो मुझे मेरे गुरू के लिए ही करनी होगी। उनसे ही लूँगा। तुझे दया आ गई, क्योंकि तुझे और बातों का पता न होगा-जिनका गुरू को पता है, जरूर मेरी तैयारी मेें कहीं कमी होगी अन्यथा कारण नहीं है। गुरू कठोर नहीं है। मेरी पात्रता अभी सम्हली नहीं। अभी मेरा पात्र कंपता होगा, अमृत को उंडलने जैसा न होगा। उस कांपते पात्र से अमृत छलक जाय। या मेरे पात्र में छिद्र होगे कि अमृत उस पात्र से बह जाय-कि मेरा पात्र उलटा रखा होगा-कि गुरू उंडेल दे और मुझे मंे पहुँच ही न पाये। जरूर कही मुझ में ही भूल होगी। धन्यवाद-तेरे प्रेम और तेरी करूणा को। अनंत प्रतिक्षा ही शिष्य की असली कसौटी है।