Posted on 27-Jun-2016 11:30 AM
मौर्य साम्राज्य की राजधानी के बाहर यमुना तट पर वासवदत्ता मैले-कुचैले वस्त्र पहने रुग्ण अवस्था में पड़ी हुई थी, जो किसी समय मथुरा की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी और सुन्दरी मानी जाती थी। रसिकों का उसके निवास पर जमघट लगा रहता था। समय की मार ने उसका सारा धन-वैभव छीन लिया। गम्भीर रोग के कारण शरीर घावों से भर गया और असहाय असस्था में उपेक्षित हो यमुना तट पर अपना जीवन बिता रही थी। अचानक भिक्षु उपगुप्त उधर से निकला और वासवदत्ता की दयनीय स्थिति देखकर ठिठका। उसने कहा-’मैं आ गया हूँ, वासव।’ वासवदत्ता ने भी उसे पहचान लिया। उसे अतीत की वह घटना याद आई, जब उसने अपने भवन में इस भिक्षु को आमन्त्रित किया था। इस भिक्षु के स्वास्थ्य, सौन्दर्य और तेज पर मुग्ध होकर उसे अपने पास ही रहने की प्रार्थना की थी। तब इस भिक्षु उपगुप्त ने वासवदत्ता की प्रार्थना को छुकराते हुए कहा था कि अभी तुम पर जान देने वाले बहुत हैं। जब तुम्हें मेरी वास्तविक जरूरत होगी तो मैं खुद ही तुम्हारी सेवा मंे आ जाऊँगा। अचानक उपगुप्त को आज अपने पास पाकर वासवदत्ता को उसका पुराना वादा याद आ गया। वासवदत्ता ने कहा-लेकिन मेरे पास अब आने से क्या लाभ उपगुप्त! अब तो मेरे पास रूप, यौवन, सौन्दर्य, धन आदि कुछ भी तो नहीं है। उपगुप्त ने कहा-तभी तो मेरे आने का समय आया है। तुम्हें मेरी आवश्यकता अब है। ऐसा कह उपगुप्त वासवदत्ता के गन्दे घाव धोने लगा। घावों पर औषधियों के लेप लगाए। वासवदत्ता की आँखों में आँसू बह रहे थे। सौन्दर्य, प्रेम और सेवा का अन्तर समझ में आ रहा था।