Posted on 12-Jun-2016 11:11 AM
जब भी हम किसी को गुरु बनाने जाएंगे, हमारा मन हमें टोकेगा, रोकेगा और हो सकता है बाधा पहुंचाए, क्योंकि गुरु बनाते ही हम किसी के प्रति समर्पित हो जाते हैं। उसके शब्द हमारे शब्द बन जाते हैं। गुरु की हां और ना में हमारी भी स्वीकृति, अस्वीकृति जुड़ जाती है। यदि हम मन का कहना नहीं मानते तो वह अड़चनें पैदा करता है। गुरु के जीवन में आते ही प्रेम और भक्ति का अभ्यास सरल होने लगता है। हम कर्मकांड से थोड़ा ऊपर उठकर भक्तियोग की ओर चलने लगते हैं। गुरु बनाना अपने आप में एक कर्मकांड है, लेकिन इसकी प्रतिछाया में योग बसा है। हम तीर बन जाते हैं और गुरु धनुष। बिना धनुष की तीर का कोई महत्व नहीं है, लेकिन जब गुरु रूपी खिंचे हुए धनुष पर शिष्य रूपी तीर चढ़ता है तो उसकी यात्रा फिर परमात्मा ही होती है। जैसे ही हम गुरु के प्रति समर्पित हुए, हमारी समग्र शक्ति गुरु की शक्ति से मिल जाती है और उनकी हमसे। यह सही है कि गुरु के जीवन में आने पर पहले प्रेम जागेगा और फिर श्रद्धा उत्पन्न होगी। प्रेम और श्रद्धा में फर्क है। प्रेम-प्रेमिका सिर्फ प्रेम करते हैं, उनके बीच श्रद्धा नहीं रहती, इसलिए एक दिन आप उनकों अलग-अलग भी पाएंगे। लेकिन जैसे ही प्रेम में श्रद्धा जुड़ी, तब हमारी प्राण ऊर्जा ऊपर उठेगी और सीधे आत्मा से मिल जाएगी। इसीलिए प्राणायाम करते समय श्रद्धा बहुत जरूरी है। जिस गुरु मंत्र के साथ प्राणायाम किया जाए, उसमें श्रद्धा हो तो ऊर्जा मूलाधार चक्र से संहार तक आसानी से उठ जाएगी। इसमें संसार से कुछ भी नहीं छूटेगा, लेकिन परमात्मा से जुड़ाव जरूर हो जाएगा।