अधर्म है आश्रित का त्याग

Posted on 02-Aug-2016 11:32 AM




महाराज युधिष्ठिर ने जब सुना कि श्रीकृष्ण ने अपनी लीला का संवरण कर लिया है और यादव परस्पर की कलह से ही नष्ट हो चुके है, तब उन्होंने अर्जुन के पौत्र परिक्षित का राजतिलक कर दिया। स्वयं सब वस्त्र एवं आभूषण उतार दिए। मौनव्रत लेकर केश खोले, वीर - सन्यास लेकर वे राजभवन से निकले और उत्तर दिशा की ओर चल पङे। उनके शेष भाइयों तथा द्रौपदी ने भी उनका अनुगमन किया। धर्मराज युधिष्ठिर ने सब माया - मोह त्याग दिया था। उन्होंने न भोजन किया, न जल पीया और न विश्राम किया। बिना किसी ओर देखे या रूके वे बराबर चलते ही गए और हिमालय में बद्रीनाथ से आगे बढ़ गए। उनके भाई तथा रानी द्रौपदी भी बराबर उनके पीछे चलते रहे। सत्यपथ पार हुआ और स्वर्गारोहण की दिव्य भूमि आई। द्रौपदी, नकुल, सहदेव, अर्जुन - ये क्रमशः गिरने लगे। जो गिरता था, वह वही रह जाता था। उस हिम समाधि प्रदेश में गिरकर फिर उठने की चर्चा ही व्यर्थ हैं। शरीर तो तत्काल हिम समाधि पा जाता है। उस पावन प्रदेश में प्राण त्यागने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति से भला कौन रोक सकता है। युधिष्ठिर न रूकते थे और न गिरते हुए भाइयों की ओर देखते ही थे। वे राग - द्वेष से परे हो चुके थे। अंत मे भीमसेन भी गिर गए। युधिष्ठिर जब स्वर्गाराहण के उच्चतम शिखर पर पहुँचे, तब भी अकेले नहीं थे। उनके भाई और रानी द्रौपदी मार्ग में गिर चुके थे, लेकिन एक कुत्ता उनके साथ था। यह कुत्ता हस्तिनापुर से उनके पीछे - पीछे आ रहा था। उस शिखर पर पहुँचते ही स्वयं देवराज इंद्र विमान में बैठकर आकाश से उतरे। उन्होंने युधिष्ठिर का स्वागत करते हुए कहा - ‘‘धर्मराज, आपके धर्माचरण से स्वर्ग अब आपका है। विमान में बैठिए।‘‘ युधिष्ठिर ने जब अपने भाइयों तथा द्रौपदी को भी स्वर्ग ले जाने की प्रार्थना की तो देवराज इंद्र बोले -‘‘धर्मराज, वे तो पहले हीे वहां पहुँच गए हैं।‘‘ तब युधिष्ठिर ने दूसरी प्रार्थना की -‘‘भगवन्, इस कुत्ते को भी विमान में बैठा लें।‘‘ इंद्र ने कहा - ‘‘आप धर्मज्ञ होकर ऐसी बात क्यों करते हैं ? स्वर्ग में कुत्ते का प्रवेश कैसे हो सकता है ?‘‘ यह अपवित्र प्राणी मुझे देख सका, यही बहुत है। युधिष्ठिर बोले ‘‘यह मेरा आश्रित है। मेरी भक्ति के कारण हीे नगर से इतनी दूर मेरे साथ आया है। आश्रित का त्याग अधर्म है। इस आश्रित का त्याग मुझे अभीष्ट नहीं, इसके बिना मैं अकेले स्वर्ग नहीं जाना चाहता।‘‘ युधिष्ठिर की बात सुनकर देवराज बोले - ‘‘राजन, स्वर्ग की प्राप्ति पुण्यों के फल से होती है। यह पुण्यात्मा ही होता तो इस अधम योनि मे जन्म हीे क्यों लेता ,‘‘ इस पर युधिष्ठिर बोले - ‘‘भगवन्, मैं अपना आधा पुण्य इसे अर्पित करता हूँ।‘‘ ‘‘धन्य हो, धन्य हो युधिष्ठिर ! मैं तुम पर अत्यंत प्रसन्न हूँ।‘‘ युधिष्ठिर ने देखा कि कुत्ते का रूप त्यागकर साक्षात् धर्म देवता उनके सम्मुख खड़े हो उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं।


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