Posted on 07-Oct-2015 03:45 PM
पुत्र के संबंधों में जो कडुवाहट आ गई है वह मनुष्य के संकुचित दृष्टिकोण और स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप ही है। पिता, पुत्र के लिये अपना सर्वस्व अर्पित कर दे और पुत्र व्यक्तिगत स्वतंत्रता हेतु अनुशासन की अवज्ञा करे तो उस बेटे को निन्दनीय ही समझा जाना चाहिये। मनुष्य का सबसे शुभचिन्तक मित्र, हितैषी, पथ-प्रदर्शक, उदार जीवन रक्षक पिता ही होता है। वह समझता है कि बेटे को किस रास्ते लगाया जाये कि वह सुखी हो, समुन्नत हो, क्योंकि उसकी त्रुटियों का ज्ञान पिता को ही होता है। जो इन विशेषताओं का लाभ नही उठाते, उन्हें अन्त में दुःख का ही मुँह देखना पड़ता है। परिवार में माता का स्थान पिता के समतुल्य ही होता है। एक से दूसरे को बड़ा-छोटा नहीं कहा जा सकता। पिता कर्म है तो माता भावना। कर्म और भावना के सम्मिश्रण से जीवन में पूर्णता आती है। गृहस्थी की पूर्णता तब है जब उसमें पिता और माता दोनों को समान रूप से सम्मान मिले। माता का महत्व किसी भी अवस्था में कम नहीं हो सकता।
व्यक्ति का भावनात्मक प्रशिक्षण माता करती है। उसी के रक्त, मांस और ओजस से बालक का निर्माण होता है। कितने कष्ट उठा सकती है-वह बेटे के लिए। स्वयं गीले बिस्तर में सोकर बच्चे को सूखे में सुलाते रहने की कष्टसाध्य क्रिया पूरी करने की हिम्मत भला है किसी में ? माता का हृदय दया और पवित्रता से ओत-प्रोत होता है, उसे जलाओ तो भी दया की ही सुगन्ध निकलती है, पीसो तो दया का ही रस निकलता है। ऐसी दया और ममत्व की मूर्ति माता को जिसने पूज्यभाव से नहीं देखा, उसका सम्मान नहीं किया, आदर की भावनाएँ व्यक्त नहीं की, वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हो सकता है।