Posted on 22-Jul-2015 02:40 PM
पिता भरण-पोषण और अध्यापन करने के कारण पुत्र का प्रधान गुरु है। वह जो कुछ भी आज्ञा दे, उसे धर्म समझकर स्वीकार करना चाहिए। यही वेद की भी निश्चित आज्ञा है। पुत्र पिता के स्नेह का पात्र है। किंतु पिता पुत्र का सर्वस्व है। एक मात्र पिता ही पुत्र को शरीर आदि सब कुछ देता है, इसलिए कोई सोच-विचार किये बिना ही पिता की आज्ञा मानता है, उसके समस्त पातक नष्ट हो जाते हैं। गर्भाधान और सीमन्तोन्नयन संस्कार के द्वारा पिता ही पुत्र को उत्पन्न करता है। वही अन्न-वस्त्र देता, पढ़ाता-लिखाता और समस्त लोक व्यवहारों का ज्ञान कराता है। पिता ही धर्म है, पिता ही स्वर्ग है और पिता ही सबसे बड़ा तप है। पिता के प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते है। पिता जो कुछ भी कहता है, वह पुत्र का अभिनन्दन करे तो वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। वृक्ष अपने फूल और फलों को छोड़ देते हैं किंतु पिता बड़े से बड़े संकट में भी स्नेह के कारण पुत्र को नहीं छोड़ता। अतः पुत्र के लिए पिता का स्थान बहुत ऊँचा है। (महाभारत) महान भारतीय संस्कृति मातृ-पिता सेवा प्रेरक रही है, जिसको अनेक संत महात्माओ ने चरितार्थ किया है। मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार के अलावा भगवान महावीर, मुनि परशुरामजी व नारदजी, भक्त प्रहलाद, पुंडलीक, नचीकेता, अष्टावक्र तथा शनिदेव आदि अनेक मनिषियों ने मातृ-पितृ सेवातीर्थ को सार्थक व साकार किया है।