Posted on 28-Nov-2015 04:34 PM
महर्षि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु ने बारह वर्ष गुरुकुल में रहकर वेद शास्त्रों का अध्ययन किया। जब वह घर लौटा तो उसे यह मिथ्य अभिमान हो गया कि वह अपने पिता से भी बड़ा ज्ञानी है। इसी मिथ्या अभिमान के कारण उसने परंपरा के अनुसार अपने पिता को प्रणाम तक नहीं किया। महर्षि उद्दालक समझ गए कि पुत्र को अभिमान हो गया है, जबकि विद्या से विनम्रता आनी चाहिए। इसलिए उद्दालक ने सोचा कि पुत्र का अभिमान नष्ट करके उसे सद्बुद्धि देनी चाहिए।
यह सोच कर उन्हांेने अपने पुत्र से कहा -’बेटे, मैं यह जान गया हूँ कि तुम बहुत बड़े विद्वान बन गए हो। लेकिन फिर भी तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। मुझे बताओ कि वह कौन सी वस्तु है, जिसका ज्ञान प्राप्त करने से सब वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। ’श्वेतकेतु ने बहुत सोचा, लेकिन उस प्रश्न का उत्तर न दे सका। क्षणभर में ही उसका अभिमान नष्ट हो गया। पिता के चरणों में गिरते हुए उसने कहा, ’’मैं इसका उत्तर नहीं दे सकता, कृपया आप ही बता दीजिए।’
तब उद्दालक ऋषि ने कहा - ’जिस तरह मिट्टी को जान लेने से मिट्टी से बनी सभी वस्तुओं और सोने को जान लेने से सोने से बनी सभी वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है, उसी तरह आत्मा को जान लेने से जीवन के सभी पहलुओं का ज्ञान हो जाता है। इसका कारण यह है कि वह आत्मा ही है जो सब प्राणियों में एक समान रहती है।’